Monday 14 November 2011

उजड़ते परिवार, सिसकती बचपन और बाल दिवस के मायने

बचपन में जब गाँव के स्कूल पढ़ने जाता था, तब एक पंक्ति जरुर गुनगुनाते हुए लोगो से सुनता था----"गइया बकरियां चरति जाये, मुनिया बेटी पढ़ती जाये " | लेकिन आज  न तो मुनिया बेटी को घर के काम करने लायक छोड़ा गया है और न ही पढ़ने लायक | मुनिया फैसन की दौर मे आगे बढ़ने के लिए लोन लेकर पढाई कर रही है, जिसके भविष्य का कोई पता नही |  पिताजी ज़मीन बेचकर लोन चुकता कर रहे है |.....इन सबके बीच उजड़ रहा है तो बस परिवार....आखिर नेहरु के जन्मदिन पर उजड़ते परिवार की ख़ुशी में बाल-दिवस मनाने के मायने क्या है जब ऐसी भयावह परिस्थितिया देश में मौजूद है ? ... दिन-ब-दिन महंगी और आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है शिक्षा, बचपन के सपने (डॉक्टर,इंजिनियर, अधिकारी बनने के)  मिट्टी मे मिलते जा रहे है और जब बचपन सिसक-सिसक कर दम तोड़ रहा है , फिर भी हम बाल-दिवस क्यों  मना रहे है ?
नेहरु के चेलों ने तो शिक्षा के अधिकार कानून के माध्यम से पूरी शिक्षा व्यवस्था का भी मजाक उड़ाने का काम किया है और सर्व शिक्षा अभियान की कमर तोड़ कर इसे "शिक्षा के लुटेरे ठेकेदारों" के हाथो में सौप दिया है|...आम आदमी की बात कहकर सरकार चलने वालों के राज़ में शिक्षा जैसी चीज़े गरीब जनता से जब दूर होती जा रही हो, तब बाल दिवस वास्तव में अपने मायने खो बैठती है | वैसे भी काहे का बाल दिवस, जिसने बाल और उसके बचपन कि खातिर कुछ किया ही नहीं बल्कि उलटे उसके भविष्य को कश्मीर, चीन जैसी समस्यायों को जूझने के लिए छोड़ दिया  हो !

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