Tuesday 6 March 2012

अंग्रेजी की भेट चढ़ती ग्रामीण प्रतिभा

एम्स में मेडिकल छात्र अनिल, अंग्रेजी की भेट चढ़ गया | अनिल का सिर्फ इतना दोष था कि उसको इंग्लिश ठीक से नहीं आती थी| उसके हौसले बुलंद थे जिससे  वह देश के सर्वोच्च मेडिकल संस्थान में दाखिला लेने में सफल रहा लेकिन उसकी प्रतिभा अंग्रेजी की काली छाया से उबर नही पायी और उसकी मौत की भी वजह बनी| वह लगातार अंग्रेजी बढि़या नही होने के कारण फेल हो रहा था और भविष्य की चिंता में तनावग्रस्त होकर अंततः आत्महत्या करने पर मजबूर हो गया|
भारत में एक अनिल ही नही बल्कि न जाने कितने अनिल इसी कातिल अंग्रेजी से पढाई के दौरान जूझ रहे है और अपने अस्तित्व व सुनहरे भविष्य के राह में रोड़ा अटकाते अंग्रेजी की बाधा को हटाने हेतु संघर्ष कर रहे है|

समस्यायों से लगातार जूझते छात्र

कक्षाओं में अंग्रेजी में लेक्चर होती है तो पढाई की सारी सामग्री भी अंग्रेजी में ही मिलती है। हिंदी माध्यम की किताबे भी पुस्तकालय में नहीं दिखती बल्कि वह अंग्रेजी की किताबो से भरी होती है। संयोगवश कुछ किताबें भी देखने को मिल जाये तो वह काफी पुरानी संस्करण होती है तथा आवश्यकता के अनुरूप नहीं होती।  ऐसी स्थति कानून के विद्यार्थी की हैसियत से मैंने व्यक्तिगत और प्रत्यक्ष तौर पर  दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में देखा है जहाँ हिंदी की पुस्तकें काफी कम संख्या में उपलब्ध है। हिंदी माध्यम से आने वाले छात्रों को सही सूचनाये भी हिंदी में नहीं मिल पाती, क्यूंकि सारी सूचना सम्बन्धी पत्रक भी अंग्रेजी में ही नोटिस बोर्ड पर टंगती है| अंग्रेजी की वजह से मानसिक प्रताड़ना भी होते देखने को मिलती है| अंग्रेजी स्कूल के बच्चे स्वभावत: हिंदी स्कूल से जाने वाले टैलेंटेड बच्चों को नजरअंदाज करते हैं और शिक्षक भी कई बार उनसे समान व्यवहार नहीं रखते। अंग्रेजी न जानने वाले छात्र अपने साथियों के बिच भी अंग्रेजी की वजह से उपहास का पात्र बन जाते  है और कुंठित होकर दोस्ती करने में भी हिचकिचाते है। नतीजा यह होता है कि धीरे-धीरे ऐसे बच्चे अपने को बाद बाकि बच्चो से अलग कर लेते हैं और कई मामलों में घोर निराशा के शिकार हो जाते  हैं, जिसकी परिणति आत्महत्याओं में होती है। मामला यही तक सिमित नहीं है बल्कि कई और अन्य प्रकार की समस्यायों को जन्म देती है । 
अंग्रेजियत की आंधी में धूल धूसरित होती ग्रामीण प्रतिभा

अंग्रेजी के इस कुप्रभाव की सबसे ज्यादा शिकार ग्रामीण पृष्ठभूमि में पढ़े बच्चे हो रहे है| समस्यायों से दिन-रात जूझते व 70 फीसदी ग्रामीण आबादी से सम्बन्ध रखने वाले मिट्टी के लालों की योग्यता  आज अंग्रेजी की आंधी में धूल धूसरित होती जा रही है| अंग्रेजी की प्राथमिकता की वजह से न केवल ग्रामीण प्रतिभा कुंठित होती जा रही है, बल्कि उसकी योग्यता भी उचित स्थान पाने में सफल नही हो पा रही|

गाँव और छोटे शहरो में हिंदी माध्यम से पढने वाले छात्रों की अच्छे संस्थानों में नामांकन लेने का सपना होता हैद्य अभावों से जूझते व गाँव की गलियों में दियें जलाकर पढाई करने वाला विद्यार्थी  अपने मेहनत के बल पर प्रवेश परीक्षाये देता है| जब वह नामी गिरामी शिक्षण संस्थानों में नामांकन के अपने सपनो को पूरा होते देखता है तो उसके आँखों में एक अजीब सी उत्साही चमक आ जाती है| सफलता के असमान में उड़ान भरने वाली मानो उसे पंख मिल जाते है| माँ, पिताजी के सपनो में समाज व देश की सपनो को पूरा करने का अवसर मिलने के रूप में वह इसे लेता है| लेकिन उसकी खुशी उस समय मायूशी में बदल जाती है जब अंग्रेजी के प्रभाव के कारण उसे हर प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है| बड़ी संख्या में छात्र ग्रामीण इलाकों से आते है जिनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं होती| ये अंग्रेजी समझ तो सकते हैं लेकिन जब प्रोफेसर बोलते हैं तो इनकी बात समझ में नहीं आतीद्य अगर छात्र क्लास में अंग्रेजी के अल्प जानकारी होने की बात बोलता है तो वो खुद को अपमानित महसूस करता है|

        अधिकांशतः हिंदी माध्यम से आने वाले छात्रों की हिंदी के साथ साथ  सम्बंधित विषय पर भी पकड़ होती है लेकिन सिर्फ अंग्रेजी की वजह से उनकी प्रतिभा को बेकार समझ लिया जाता है| अंग्रेजी के कारण तनाव झेल रहे छात्रों के लिए काउंसलिंग की कोई प्रणाली  भी अमूमन नहीं होती है, जिस कारण तनाव में घिरे छात्र पूरी तरह से अवसाद में चले जाते हैं और अंततः आत्महत्या करने को प्रेरित होते है| देखने में आता है की प्रशासन ऐसी समस्यायों के प्रति संवेदनशील नहीं रहता|


अंग्रेजी के वर्चस्व के लगातार प्रयास

कुछ दिनों पहले प्रशासनिक  सेवाओं में भी हिंदी की स्वीकार्यता को समाप्त कर अंग्रेजी के प्रभुत्व को स्थापित करने की कोशिश हुई| हाल में आइआइटी में भी सीबीएसइ के छात्रों को अंकों के मामले में तरजीह देने कि बात की गयीद्य नए प्रावधान के मुताबिक बारहवी के अंक अब ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे  और छात्रों द्वारा बारहवी में प्राप्त अंक आइआइटी में नामांकन के निर्धारण के समय 40% तक मायने रखेंगे| ऐसे में स्वाभाविक है की फिर एक बार ग्रामीण छात्र ही इससे प्रभावित होंगे क्यूंकि अधिकांश राज्य बोर्डों की परीक्षाये देते है जहाँ अंक कम मिलते है| इस फैसले के कारण अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र ही इंजिनियर बनने का ख्वाब पूरा कर पाएंगे| इस प्रकार के फैसले और हिंदी  सहित तमाम क्षेत्रीय भाषाओं की विरोधी  प्रवृति के पीछे ग्रामीण योग्यता को नकारने व सर्वोच्च पदों तक उन्हें नहीं पहुचने देने की साजिश चलने की गंध आ रही है|


मातृभाषा में हो क्लास

अगर विद्यार्थी हिंदी में पढ़कर अच्छे संस्थानों के प्रवेश परीक्षाओं को पास कर सकता है फिर वैसे में छात्रों की आगे की पढाई का भी इंतजाम होना चाहिए ताकि मात्र भाषाई दिक्कत्तों से आत्महत्या जैसे प्रयास करने को छात्र मजबूर न होने पाए| शिक्षण संस्थानों की यह जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाये की वह उनके पढाई के माध्यम का भी ख्याल रखे| अनिल ने एम्स की अंडरग्रेजुएट प्रवेश-परीक्षा में हिंदी भाषा में अपने उत्तर लिखे थे। अगर अभ्यर्थियों के चयन में हिंदी माध्यम स्वीकार्य है तब रेगुलर क्लासेज में क्यों नहीं हो सकती ?  अंग्रेजी के जो क्लास चलाये जाते है अगर वह विद्यार्थियों के लिए नाकाफी है तो फिर अंग्रेजी में ही पढ़ाने की जिद क्यूँ ? क्यूँ न विद्यार्थिओं को उनके मातृभाषा में ही पढाया जाये ? हमें लगता है कि इसपर कोई अप्पत्ति भी नहीं होने चाहिए| यह निर्णय संविधान के निर्धारित मापदंडो के दायरे में होगा और इसे राजभाषा हिंदी के सम्मान के रूप में देश व समाज देखेगा|


शिक्षकों द्वारा शुरू हो पहल 
भारत में पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले 75% शिक्षक भारतीय है और एक राजभाषा के तौर पर हिंदी के सामान्य ज्ञान से सबका परिचय होता है| ऐसी मानसिकता विकसित करने के प्रयास हो जिससे हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़कर निकले छात्रों को अंग्रेजी से परेशानी महसूस न हो, जैसे- क्लास के दौरान उनको सवाल उनकी मातृभाषा में पूछने को प्रोत्साहित करना व उनके द्वारा पूछे गये सवाल का जबाब उन्ही की भाषा में देने की कोशिश करना ताकि अंग्रेजी की समस्या से जूझना न पड़े और प्रतिभा भाषाई बोझ के तले दबे न रहे| कॉलेजों में प्रोफेसर इतने प्रशिक्षित हों कि वे हिंदी भी अंग्रेजी के साथ पढ़ा सके और बच्चों की जिज्ञासाएं हिंदी भाषा में शांत कर सके|

भाषा सुधार हेतु खोले जाये भाषा विकास केंद्र

वर्तमान में देश में 13.62 लाख प्राथमिक व उच्चतर प्राथमिक विद्यालय है | इनमे से लगभग 53%(7,19,387) स्कूलों में हिंदी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है जबकि मात्र 11.7%(1,58,866) स्कुल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्रदान करते है| अब ऐसे में अगर किसी ने स्कूल तक हिंदी या तमिल में पढ़ाई की है और उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती तो ये उसकी कमजोरी नहीं है| सरकार को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए कि ऐसे छात्रों के लिए स्कूलों में अंग्रेजी सिखाने का प्रावधान हो|  हर शैक्षणिक संस्थान में भाषा विकाश केंद्र खोला जाये| क्षेत्रीय भाषाओं के साथ साथ विशेष रूप से हिंदी भाषा के जानकार लोगो की उसमे नियुक्तिया हो| इससे भाषा सुधार में मदद मिलेगी| विदेशी विश्वविद्यालयों से हम इस मामलों में सिख ले सकते है जहाँ टॉफेल जैसे परीक्षाएं लेकर छात्रों को उनकी भाषाई ज्ञान आँका जाता है| छात्रों को यह पता रहता है की हमारी भाषाई कमी कितनी है

दुसरे देशों के अनुभव
भारत कहने को अपने को उभरती हुई महाशक्ति बताता है और विकशित देश होने के पथ पर अग्रसर बताता है| फिर क्या भारत बिना भाषा की समृद्धि से समृद्ध हो जायेगा ? क्या भारत सिर्फ अंग्रेजी से ही महान देश बन जायेगा ? कतई नहीं , क्यूंकि आकडे और वास्तिविकता कहती है की जो देश विकशित हुए है अपनी भाषा की समृद्धि की वजह से हुए|  क्या वजह है कि चीन ने पिछले 20 सालों में भारत को उच्च शिक्षा के मामले में काफी पीछे छोड़ दिया है| चीन में भारत से पांच गुणा उच्चस्तरीय शोध-पत्र  निकलता हैं|  चीन ऐसा कर पाने में इसलिए सफल हुआ क्यूंकि उसने अपनी शिक्षा पद्धति अपनी मातृभाषा में विकशित कीया| भारत में अभी प्रति वर्ष 6000 पीएचडी छात्र करते है जबकि चीन में जहाँ 1993 तक 1900 पीएचडी प्रतिवर्ष होते थे, आज 22000 पीएचडी करने वाले छात्र है| उच्च शिक्षा में जहां भारत चीन और मलेशिया सरीखे देशों से एक जमाने में काफी आगे होता था आज काफी पीछे चला गया है। भारत का सकल-पंजीकरण अनुपात अभी भी महज 13.5 फीसदी है जबकि अमेरिका का  81.6, चीन का 22.1 व मलेशिया का 27 प्रतिशत है। जापान, रूस आदि देश भी अपनी भाषा के विकास से विकसित हुए जो पुरे दुनिया के सामने आज उदहारण बने हुए है| इसलिए समय की मांग है की अपनी भाषा को सरल, सुगम, सर्वव्यापी बनाया जाये| सहजता से पढ़ने, बोलने लायक हिंदी भाषा को पढाई का माध्यम बनाने में कोई आपत्ति भी  किसी को नहीं होने चाहिए द्य अच्छा डॉक्टर बनने के लिए विषयज्ञान (चिकित्सा विज्ञान) जरूरी है न की भाषाज्ञान (अंग्रेजी ज्ञान)द्य अंग्रेजीदां लोगों ने एक दुष्प्रचार कर रखा है कि अंग्रेजी ज्ञान और विकास की भाषा है द्य हकीकत यह है कि ज्ञान और विकास का किसी भाषा विशेष से कोई संबंध नहीं होता और भाषाज्ञान की तुलना में विषयज्ञान ज्यादा जरूरी चीज है| यह कितनी बड़ी मानवीय विडम्बना का विषय है कि भाषा जिसे सिर्फ संप्रेषण का माध्यम होना चाहिये था हमारे समाज में वर्चस्व का प्रतीक हो गया है और जिसकी अज्ञानता से किसी की जान तक जा सकती है द्य
                                          साथ ही साथ हिंदी में किताबे पुस्तकालयों में  प्रचुरता  व आसानी से उपलब्ध होने चाहिए द्य शैक्षणिक संस्थानों को अपने ऊपर यह दायित्व लेने के लिए सरकार को प्रोत्साहित और निर्देशित करना चाहिए की वह विश्व की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों का अनुवादित संस्करण अपने छात्रों को मुहैया कराए|

हिंदी के सम्मान में अंग्रेजी का विरोध नहीं

विश्व के सर्वमान्य प्रचलित संपर्क भाषा के रूप अंग्रेजी का सम्मान किया जाना चाहिए द्य एक भाषा के रूप में उसका अध्ययन करना चाहिए और उसका ज्ञान भी होना चाहिए| अंग्रेजी की जानकारी आज की जरुरत है लेकिन अंग्रेजी को जबरदस्ती थोपने की नीति कितना जायज है इस पर व्यापक विचार विमर्श की आवश्यकता है| यह अंग्रेजी का वर्चस्ववादी डरावना रूप है, जहाँ कोई होनहार और प्रतिभाशाली छात्र हिंदी माध्यम से कामयाबी का सफर तय करने के बावजूद अंग्रेजी के औसत ज्ञान के कारण फिसड्डी और असफल मान लिया जाता है|             
             ऐसे समय में जब भारत को उच्च शिक्षा के सर्वोत्कृष्ट स्थति में पहुँचाने के लिए सरकार लगातार नए नीतिया बना रही है तो कम से कम देश की जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखने की जरुरत है। अधिकांश भारतीय छात्र अपने राह में अंग्रेजी को रोड़ा न माने, इसके लिए सरकार को मजबूत इरादे से प्रयास करने चाहिए। विश्वविद्यालयो में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी के व्यापक प्रचार और विस्तार के साथ साथ हिंदी माध्यम से पढने आए छात्रों के लिए भाषाई दिक्कतों को दूर करने के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करना जरुरी है| साथ ही साथ अंग्रेजी के प्रति पूर्वाग्रह वाली सोच भी हमें बदलनी पड़ेगी ताकि अंग्रेजी कुंठा अनिल के साथ साथ अनेक प्रतिभाओं की अकाल मौत के लिये जिम्मेवार न बने| यह प्रश्न आज हर भारतीय के मन में उठने चाहिए कि .क्या अंग्रेजी कम जानने वाले ग्रामीण अंचलों के छात्रों को नीची नजर से देखा जाना चाहिए?  क्या उनकी प्रतिभा का मजाक उड़ाना सही है ? क्या इससे ग्रामीण भारत में असंतोष का भाव एक नए क्रांति के रूप में प्रस्फुटित नहीं होगा ? वक्त इन सवालों के साथ त्वरित जबाब भी चाहती है|
अंग्रेजियत की विनाशकारी प्रवृति ने प्रतिभाशाली छात्रों की योग्यता को कम करके आंकने का काम किया है जिसके कारण हताश और निराश मातृभाषा आज अपने लिए कुछ करने का आग्रह सरकार और समाज से कर रही है ताकि उसके लाल अपनी प्रतिभा की लालिमा बिखेर सके और भारत की समृद्धि में अपना योगदान दे पाए|