Tuesday 10 January 2012

जातिवाद से प्रदूषित होती भारतीय राजनीति

आज़ादी  के  6 दशक बीत जाने के बाबजूद भी देश, व्यवस्थागत और सामाजिक चुनौतियों से निपटने मे व्यस्त है | आम जनता आतंकवाद, बढती बेरोजगारी, कमर-तोड़ महंगाई से परेशान है वही वह अपने बीच में व्याप्त सामाजिक समस्यायों से भी पीड़ित है | जातिवाद से प्रेरित राजनीति भी इन्ही समस्यायों मे शामिल है जिसने हमारे समाज को तो खोखला कर ही दिया है, राजनितिक व्यवस्था को भी प्रदूषित करने पर तुली हुई है| अधिकांश राजनीतिक दल व उनके नेता आम जनमानस के विषयों, यथा, आर्थिक व सामजिक समानता स्थापित करने, रोजगार दिलाने, भोजन, वस्त्र, आवास,शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी जरूरतों को पूरा करने को ताक पर रखकर, जात-पात की राजनीति को हवा दे वोट बटोरने और सत्तासुख भोगने के फिराक में है |
आनेवालें दिनों में कुछ राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वालें है | सारे राजनितिक दल जातिगत राजनीति के इस घिनौने खेल का हिस्सा बनने में कोई हिचकिचाहट दिखाते नहीं दिख रहे है | राष्ट्रवाद का झंडा थामने का दंभ भरने वाली भाजपा हों, या सेकुलर होने का एकमात्र एकाधिकार रखने का हक समझनेवाली कांग्रेस पार्टी, सभी सत्ता पाने  की छटपटाहट में समाज को बाँटनेवाली नीतियों पर चल रहे है| राजनीतिक दलों  की सारी नीतियाँ, जातियों, जातीय समीकरणों और जातिगत जनसंख्या  के जोड़-तोड़ के इर्द-गिर्द ही बनती दिख रही है|  एक तरफ हम विश्व महाशक्ति बनने का अहंकारी दंभ भर रहे है, देश के चमकने और बदलने के नारे जोर शोर से लगाये जा रहे है, वही परदे के  पीछे बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थति देखने को मिल रही है | प्रगतिशील समाज के नित्य बदलते जीवन-शैली, विविधता में एकता के बंधते सूत्र ( रेलवे और शिक्षण संस्थाओं में बढ़ी नजदीकियां बिना किसी भेदभाव के) और तकनिकी व सुचना के इस दौर में भी पार्टियाँ समाज की पारंपरिक कमजोरीयों को सत्ता और पद लिप्सावश गलत इस्तेंमाल कर एवं उनकी भावनाएं भड़काकर, चुनाव जितने के जुगार फिट करने  में लगे है|   
दुर्भाग्यपूर्ण स्थति है कि  "देश के कुछ  राजनीतिक दल जातीय श्रेष्ठता और स्वीकार्यता के आधार पर सत्ता हथियाने का सपना पाले बैठे हुए है |"" बड़ी अजीब विडंबना है कि दुनिया को ज्ञान सिखाने वाला भारत सामाजिक दायरे मे सिमटी राजनीति का नमूना पेश करता है और अमेरिका जैसा देश गोरे-काले की भेद मिटाकर बराक ओबामा जैसे को अपना सबकुछ सौप देता है
युवा पीढ़ी के जिम्मे समाज में घुसी इस दीमक रूपी किट को अपने विचारों एवं तदनुसार व्यवहार और आचरण द्वारा  समूल नष्ट करने  जिम्मेवारी है जिसे उसने पिछले बिहार चुनाव में जातिगत मान्यताओं से ऊपर वोट देकर जतलाया था | भविष्य में वैचारिक क्रांति से जाति व्यवस्था पर आधारित गन्दी और विभाजक राजनीति को नष्ट करके भेदभाव रहित समाज के निर्माण एवं सविंधान के मजबूत सिपाही बनने हेतु युवाओं को आगे आना चाहिए | इतिहास दोहराने का मौका बार-बार नहीं मिलता| जाति के नाम पर राजनीतिक शुचिता को जिन्दा दफ़नाने वालें दलों को सबक सिखाना बहुत जरुरी है वरना जिन्दगी भर जाती के " जाता( गाँव में गेहूं पिसने वाली घरेलु उपकरण )"  में पिसते रहेंगे |

Monday 9 January 2012

""बोल"" की लब आजाद है तेरे


महिला अधिकार के लिए समाज में हमेशा एक बहस चलती रही है |  धर्मिक विचारों को अपनी सोच का लेप चढ़ाकर और फिर उसे अपने ही रंग में रंगकर, अपने ही चश्में से देखना जब प्रारंभ हो जाता है तब महिला हमेशा ही आजीवन एक अघोषित जेल की कैदी बनकर रह जाती है और उसके सपने और अरमान मिट्टी के धुल बनकर धर्म के ठेकेदारों की तानाशाही आंधी में उड़ जाती है | इतिहास गवाह है कि संकीर्ण  दायरे में सिमटी विचारधारा और दकियानुशी सोच मे बंधी सामाजिक व्यवस्थाओं के कुछ अंधे अनुयायी महिलाओं को मिलने वाले प्रत्येक नागरिक अधिकारों को लेकर हमेशा हो-हल्ला मचाता रहे है | जब भी दुनिया में स्वतंत्रता और समानता पर आधारित समाज का निर्माण करने की बात चलती है तो हमेशा महिलाओं को दरकिनार कर उनकी महत्ता को नकार दिया जाता है | कुछ विशेष उदाहरणों( झाँसी की रानी, सुषमा स्वराज आदि ) को रटी -रटाई अंदाज़ में सुनाकर एवं  महिला सशक्तिकरण के जोरदार  नारे लगाकर आधी-आबादी  को तथाकथित कामयाब होने का प्रमाण-पत्र थमा दिया जाता है लेकिन परिस्थितियां बदलती नज़र नहीं आती | हम महिला अधिकार के नामपर  खुलेआम अपनी मनमर्ज़ी से  सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने की वकालत नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें घर की दीवारों  से निकालकर समाज व देश के विकाश में हाथ बटाने का समर्थन कर रहे है | केवल चंद उदहारण गिनाने  एवं  विधानसभा और लोकसभाओं में सीटें आरक्षित कर देने भर से कुछ होने-जाने वाला नहीं जबतक की सर उठाकर जीने लायक माहौल न बना दिया जाये |
कल रात पाकिस्तान में प्रतिबंधित फिल्म ""बोल "" देखने के बाद  यही विचार मन में उमड़ रहे थे कि- वाकई महिलाएं आज भी अपनी चारदीवारी में सिमटी, दुनिया से दूर, सब कुछ खोकर सिसकियाँ भर रही है | पवित्र कुरान की आयतों का गलत ब्याख्या कर महिलाओं के ऊपर जुल्म करना क्या वाजिब है?  यह अलग बात है की यह किसी फिल्म की कहानी मात्र है परन्तुं  वास्तविकता से यह कोशो दूर नहीं बल्कि ज़मीनी हकीक़त की एक झलक जरुर प्रस्तुत करती है | प्रगतिशील मुस्लिम समाज के मानसिकता  को फिल्म ने बखूबी दिखाई है और हमें जरुर इसे स्वीकार करना चाहिए कि--- महिला सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन मात्र नहीं है बल्कि उसकी अहमियत और जरुरत उतनी ही है जितना पुरषों की | हमें आरक्षण की बहस से आगे बढ़कर सामाजिक बराबरी के सांचे में महिलाओं को उचित स्थान देना ही पड़ेगा | समय है हम उनकी वजूद को नकारने की वजाए मुख्यधारा में शामिल होने दें वरना क्रांति की मशाल थामें महिलाएं बहुत जल्द हल्ला बोलने वाली है | आग्नि  के ताप और सूर्य के तेज़ ज्यादा देर तक ढकना पसंद नहीं करते क्यूंकि उनकी प्रकृति ऐसा करने की उन्हें इज़ाज़त नहीं देती |