Tuesday 30 October 2012

आश्वासन नहीं, नवरूणा चाहिए

जिस बेटी के सुनहरे सपनों को सुनकर माँ की आँखों में खुशी और चेहरे पर मुस्कराहट होती थी। आज वही मां पिछले 42 दिनों अपनी बेटी के गायब होने से चौबीसों घंटे सिर्फ रोती और विलखती रहती है। उसके मुँह से एक ही शब्द निकलते हैं मेरी बेटी कहां है, कोई तो बताए कहां है..वह किस हालात में होगी..यही शब्द बोलते-बोलते वह रो-रो कर बेहोश हो जाती है। लेकिन उसके रोने का न ते वहां का प्रशासन द्रवित हुआ और न ही वहां की सरकार। सब कुछ वैसे हो रहा है जैसे सरकारी तंत्र का पुराना रिकार्ड रहा है,या यूं कहे तो हालात उससे भी खराब है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शिकायत 


19 सितम्बर को की गयी FIR की कॉपी 







Monday 29 October 2012

बिहार की बेटी को बचाओ, नवरुणा को जल्दी लौटाओं


नवरूणा की सकुशल रिहाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र प्रदर्शन करते हुए 
आजकल बिहार की धरती फिर से गुंडाराज के नज़ारे देखने को मजबूर हो रही है। बिहार में हाल के दिनों में  लगातार अपहरण, हत्या, लुट, बलात्कार, चोरी , छिनतई जैसी घटनाओं में एकाएक बढ़ोतरी हो गयी है। दुर्भाग्य है कि एकतरफ बिहार में प्रशासनिक व्यवस्था चौपट हो गयी तो दूसरी तरफ इन सबसे बेखबर सुशासन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने में व्यस्त है।

पिछले दिनों बिहार सरकार ने मधुबनी में हुए हत्या की गुत्थी सुलझाने में देर लगायी और जिसके   परिणामस्वरूप भड़की हिंसा में  2 लोगो को अपनी जान  देनी पड़ी। जिस प्रकार की प्रशासनिक उदासीनता मधुबनी कांड में देखने को मिली वैसी ही उदासीनता मुजफ्फरपुर से गत 18 सितंबर को अपहृत की गयी 11 वर्षीय  नवरूणा के अपहरण के मामले में भी दिख रहा है। मुजफ्फरपुर के जवाहरलाल रोड में रहने वाली और  सेंट जेवियर्स स्कूल की छात्रा नवरुणा का अपहृत हुए 40 दिन हो गए, लेकिन उसका  अब तक कोई पता नहीं चला है। नवरुणा कहां और कैसी है, इसको लेकर सभी चिंतित हैं। मां-बड़ी बहन नवरुपा की आंखें बेसब्री से इंतजार कर रही हैं।  ह्रयद रोगी पिता अतुल्य चक्रवर्ती परेशान हैं।

शुरूआती जाँच में पता चलता है कि अपहरण में भूमि विवाद और भू-माफियाओं के हाथशामिल है। लेकिन फिलहाल कोई ठोस नतीजे सामने नहीं हैं। 

मधुबनी के मामले की तरह  नवरूणा के मामले को भी प्रेम प्रसंग से जोड़कर पहले तो पुलिस उसकी बरामदगी की मांग पर आनाकानी करती रही और स्थानीय खुफिया अधिकारी की नवरूणा के अपहरण कर्ताओं के चंगुल से छुड़ाने संबंधी सक्रियता के बाद उसे बदल दिया।  लेकिन बाद में जब जनदबाब बढ़ा तो अब  पूरा सरकारी महकमा सक्रीय होने का सिर्फ ढोंग रच रहा है। इन सबके बाबजूद अपहरण के 41 दिन बीत जाने के बाद भी नवरूणा की सकुशल घर वापसी पुलिस सुनिश्चित नहीं करवा पाई है।

मुजफ्फरपुर में अपहरण की कोई यह नयी घटना नहीं है। इससे पहले भी कई घटना की गवाह मुजफ्फरपुर रहा है जिसमे प्रशासन की लापरवाही की भेंट आम जनता को अपनी जान  गवांकर चुकानी पड़ी है। पिछले ही दिनों(2 अक्टूबर) काँटी में बिजली की मांग को लेकर जारी विरोध के समय भी प्रशासन का यही रुख रहा था,. पहले तो विरोध को नजरंदाज किया गया बाद में जब जनता का आक्रोश बाधा तो पुलिस लाठीचार्ज और फायरिंग की घटना हुयी और कई लोग घायल हुए थे।  

लेकिन जिस प्रकार की उदासीनता नवरूणा के मामले में पुलिस और सरकार दिखा रही है, उससे यह स्पष्ठ हो गया है कि  सरकारी व्यवस्था अपराधियों के चंगुल से अभीतक नहीं निकल पाई है और मुजफ्फरपुर की धरती फिर से गोलू के अपहरण और फिर उसकी हत्या से उपजे दर्दनाक हालात से जूझने को दुबारा मजबूर दिख रही है। ( देखे - http://t.co/lekCZdQO) चार वर्षीय मासूम गोलू के अपहरण के समय भी सरकारी उदासीनता के नज़ारे देखने को मिले थे, जिसके बाद गोलू की हत्या कर दी गयी। गोलू की हत्या की खबर से पुरे देश में आक्रोश की लहर पैदा हो गयी थी। संसद से सड़क तक आन्दोलन हुए। मुजफ्फरपुर में हत्याकांड के विरोध में जब प्रदर्शन आयोजित हुआ तो हिंसक भीड़ बेकाबू हो गयी, जिसके बाद पुलिस लाठीचार्ज में सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 20 से अधिक लोग मारे गए थे। क्या सरकार फिर से यही स्थिति मुजफ्फरपुर में पैदा करना चाहती है ?

दुर्भाग्य तो यह है कि मीडिया अबतक इस मुद्दे पर खामोश है या यु कहे की नीतीश के राज में हो रही इस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में लिखने की ताकत नहीं बची। पुलिस मात्र आश्वासन देने में व्यस्त है (देखे- http://www.jagran.com/bihar/muzaffarpur-9779731.html ).  

नवरूणा की सकुशल रिहाई के लिए न केवल मुजफ्फरपुर में बल्कि पुरे देश में आन्दोलन की आग सुलग रही है। पिछले दो दिनों से मुजफ्फरपुर में जब स्थानीय लोगो ने विरोध जताना शुरू किया है, तबसे पुलिस और प्रशासन सक्रीय होने लगी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी नवरूणा के लिए आवाज़ उठनी शुरू हो गयी है। 

इसी विरोध के क्रम में कल "बिहार पुलिस- आश्वासन नहीं, नवरूणा चाहिए", "बिहार में सुशासन सरकार, हत्या-चोरी और बलात्कार", "बिहार की बेटी को बचाओ, नवरुणा को जल्दी लौटाओं " के नारे के साथ मुजफ्फरपुर के छात्रों सहित अनेक विद्यार्थीयों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस स्थित विवेकानंद मूर्ति के समीप कैंडल मार्च और विरोध प्रदर्शन आयोजित कर नवरूणा के अपहरण पर अपना विरोध जताया एवं उसकी सुरक्षित घर वापसी सुनिश्चित करवाने की सरकार से  मांग की। 

कैंडल मार्च में उपस्थित छात्रों ने मानवाधिकार आयोग और बाल आयोग जाने का भी निर्णय लिया है. साथ ही अगले २-३ दिनों में अगर अपहरणकर्ताओं के चंगुल से नवरूणा को रिहा करवा पाने में प्रशासन विफल रहता है तो बिहार भवन का भी घेराव किया जायेगा.

दिल्ली में पढने वालें मुजफ्फरपुर सहित पुरे बिहार के छात्र इस घटना से अत्यंत दुखी है। बिहार में बढ़ते हत्या, बलात्कार और अपहरण की घटना न केवल चिंताजनक है। हम सभी सरकार से मांग करते  है कि आम बिहारियों कि सुरक्षा सरकार सुनिश्चित करें। 


Wednesday 24 October 2012

अपनों से ही हारा भारत







भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए बलिदानों सपूतों की याद में 




सन् 1962 के युद्ध में चीन से मिली पराजय आज भी प्रत्येक भारतीयों के सीने में चुभती रहती है। युद्ध में मिली हार के मर्म ने कितने भारतीयों को रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। यह हार भारत के लिए सिर्फ एक राजनितिक हार नहीं थी। इस हार ने उन तमाम भारतीयों की भावनाओं को तार-तार किया, जिन्होंने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारों को पूरे जोश के साथ बुलंद किया था। होश तो उन्हें तब आया जब वे अपनी “दोस्ती” को विश्वासघात के तराजू पर राजनीतिक दाव-पेंचों के बटखरे से तौलता हुआ पाए।



चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तो यह देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए देश विभाजन के दर्द से निजात पाने व पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास की परिभाषा गढ़ने में लगा था। लेकिन चीन ने अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए एक तरफ  भारत से दोस्ती का ढोंग रचा तो दूसरी तारफ पीठ पीछे खंजर मारने का काम किया।



सभी इस बात को मानते है कि देश के सुरक्षा के प्रति बेपरवाह तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की गलतिया चीन युद्ध में मिली पराजय के प्रमुख कारण थे। युद्ध में हुई हार के बाद अपनी गलती स्वीकारते हुए नेहरु ने संसद में कहा भी था कि  ”हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था।”  बाद में हार के कई कारण गिनाये गए। अनेक लोगों को संदेह के घेरे में पाया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन बुक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत के नेतृत्व में एक जाँच समिति भी बनायीं गयी, जिसने चीन से हुए युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की। जांच रिपोर्ट प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ वरिष्ठ मंत्रियों को 1963 में ही सौंप दी गयी थी लेकिन उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है। कहा जाता है कि उस रिपोर्ट में नेहरु की नीतियों को हार का जिम्मेदार घोषित किया गया था, इसलिए उसे सार्वजनिक करने में कांग्रेसी सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। बाद में सभी सरकारों ने उसे यह कहकर जनता के बिच लाने का प्रयास नहीं किया कि इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से भारत चीन संबंधों पर असर पड़ेगा।



खैर, वैसे में जब सभी इस बात को स्वीकार करते है कि चीन से हुए युद्ध में पराजय नेहरु की गलत विदेश नीतियों और सुरक्षा सबंधित कुछ लोगों की रणनीतिक चूक का नतीजा थी, हार के अन्य कारणों पर भी नजर दौड़ाना जरुरी है। जब हम गहराई  से हार के कारणों की पड़ताल करते है तो लगता है कि इस पराजय के लिए नेहरु की भूलों से ज्यादा 1962 के उन गद्दारों को याद करने की जरुरत है, जिन्होंने युद्ध के दौरान भारत में रहकर भारत के ही खिलाफ काम किया था। ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्यूंकि जिन संगठनों ने 1962 में देश के खिलाफ एकजुट होकर दुश्मनों का साथ दिया था, वह आज भी किसी न किसी रूप में भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए हैं।



आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आजादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फिराक में जुटा था। पश्चिमी जीवनशैली जीने के आदी लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित नेहरु ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के तराने गा रहे थे। इस हिंदी-चीनी दोस्ती के स्वप्न देखने और चीन के प्रति अगाध प्रेम उमड़ने की नीति के मूल में वामपंथियों का दिमाग काम कर रहा था। पर कौन जानता था कि भाईचारे की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि ‘यह युद्ध नहीं बल्कि, समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संघर्ष है।’



कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be an aggressor) ”। ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहा था। जबकि कुछ वामपंथी तटस्थ थे तो कुछ भारत सरकार के पक्ष में भी थे, जिनमें एस.ए. डांगे प्रमुख रहे। वामपंथी डांगे को छोड़ दें तो कोई और बड़ा नाम भारत के पक्ष में खड़ा नहीं दिखा, अधिकांश वामपंथियों ने चीन का पक्ष ले रखा था। ई.एम.एस नम्बुरिपाद,  ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे, उनमे बी.टी. रानादिवे, पी. सुंदरय्या, पी.सी. जोशी, बसवापुन्नैया सहित उस समय के अधिकांश बड़े वामपंथी नेता शामिल थे। बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज पर सारी सूचनाये इकठ्ठा कर चीन को सूचित करने में भेदिये की भूमिका निभा रहे थे। युद्ध के समय वामपंथियों की चीन के समर्थन में किये इस देशद्रोही कार्य का कुछ दिनों पहले एक विदेशी खुफिया एजेंसी ने खुलासा भी किया था, जिसके बाद इनकी असलियत प्रमाणिक तरीके से दुनिया के सामने आ गयी।



वैसे समय में जब हम इस युद्ध के 50 वर्ष बीतने के बाद भी हार के कारणों पर चर्चा कर रहे है, हमें  चर्चा करते समय यह बात ध्यान में रखनी ही होंगी  कि गद्दार वामपंथियों को भी इस हार के लिए कम कसूरवार नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिनकी हमदर्दी भारत में रहने के बादजूद चीनियो के साथ थी। युद्ध के दौरान जिस तरीके से वामपंथियों ने चीनियों का साथ दिया, वह शर्मनाक था। जिस तरह वामपंथियों ने युद्ध की वजह से भारत पर आये संकट को दरकिनार कर चीनियों का समर्थन व सहयोग किया, वह विश्व इतिहास में देशद्रोह के सबसे घिनौने करतूतों में शामिल है। पूरी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार से, जिस थाली में खाकर वामपंथी बड़े हुए थे, उसमें ही छेद करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। वामपंथियों ने दुश्मनों के साथ मिलकर अपने ही घर को लूटने में सहभागिता निभाई और अंततः देश को गद्दारी की कीमत चुकानी पड़ी। भारत को पराजयश्री का दंश झेलना पड़ा। अपनी जमीन खोनी पड़ी । 




ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब वामपंथियों ने भारत के खिलाफ साजिशों को अंजाम दिया हो। आजादी के संघर्ष के दौरान भी वामपंथियों ने अंग्रेजों का साथ देकर अपनी देशद्रोही छवि का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया था। आजादी के संघर्ष के दौरान वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। आज़ादी के लड़ाई को पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाये जाने की बात कहते हुए वामपंथियों ने इसमें कभी हिस्सा नहीं लिया। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के साथ गलबहिंया किये काम करते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आजादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार लेलिन और माओ के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आजादी के पश्चात अनेक वर्षों तक वामपंथियों ने भारतीय संविधान की अवहेलना की और उसे स्वीकारने से भी इंकार किया।



लेकिन दुखद तथ्य यह है कि चीन के साथ हुए युद्ध में मिली हार से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के बजाए जेल में डालने का काम किया। सभी जानते है कि 1962 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुई, जो अंततः उनकी मौत की वजह भी बनी।



ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनीतिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते फिरे, लेकिन इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना आज भी मुश्किल है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा जमाने और भारत की लोकतान्त्रिक ढ़ांचे को कमजोर करने  का लगातार षड्यंत्र रच रहे हैं। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार कही न कही इन्ही लोगो से जुड़े हैं जो आजादी से पहले अंग्रेजों का और आजादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे हैं। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है।



वैसे समय में जबकि आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है, इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाये थे। एक तरफ चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए हैं तो दूसरी तरफ वामपंथी आतंकवाद से भारत आन्तरिक रूप से असुरक्षित महसूस कर रहा है । हमें जरुरत है, इनसे सावधान रहने की।

Thursday 18 October 2012

Saturday 13 October 2012

Pariwartan 2020

हमारे प्रयाशों की बदौलत एल एस कॉलेज में मनाई गयी लंगट बाबू  की 100 वी पुण्यतिथि