Friday 3 August 2012

अन्ना आन्दोलन - युवा भारत के भविष्य के साथ छल


"भारत माता की जय ", "वन्दे मातरम","इन्कलाब जिंदाबाद", "भ्रष्टाचारियों सावधान-जाग उठा है नौजवान", " बहुत हो गया, अब देश की जनता कतई भ्रष्टाचार नहीं सहेगी", "अन्ना तुम संघर्ष करो- हम तुम्हारे साथ है"....ये कुछ नमूने है जो जिन्दगी में पहली बार किसी बड़े आन्दोलन को जागते, उठते और अंगड़ाई लेते देखते समय सुनाई पड़ा था. अन्य युवाओं की तरह मैं भी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान था और इस उम्मीद में उस भीड़ की तरफ खिंचा चला गया कि शायद अब तो इस शब्द (भ्रष्टाचार) से छुटकारा मिलकर रहेगा. वैसे ही जैसे पोलियो, प्लेग जैसी महामारी ख़त्म हो गयी थी. लेकिन सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया. राजनीति की स्वार्थ से प्रेरित आन्दोलन पार्टी बनाने की घोषणा के साथ समाप्त हो गयी. अनशन को ताकत बताने वाले लोग अनशन की महत्ता को ही दरकिनार कर दिए और राजनीति के भूखे लोगों की राह पर दौड़ पड़े. 

अन्ना पार्टी बनाने की घोषणा से सबसे ज्यादा कोई मायूस है तो वह है युवा वर्ग. aअपना कैरियर दावँ पर लगाने को तैयार युवाओं के सभी सपने अन्ना की एक घोषणा से चकनाचूर हो गये. युवाओं की टीम अन्ना द्वारा चलायी गये आन्दोलन में सक्रिय भूमिका का एक नमूना आज भी बखूबी याद है कि जब अन्ना की गिरफ़्तारी हुई थी और उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के समीप छत्रशाल स्टेडियम लाया गया था. राजनीति को कॉलेज की कैंटीन में gaगलियां देने वाले सभी मित्र सड़कों पर थे. विश्वविद्यालय मेट्रो से लेकर आजादपुर मेट्रो स्टेशन तक लोगों की भीड़ उमर पड़ी थी. सेमेस्टर-सिस्टम, कॉलेज की शैक्षणिक समस्यां, बढ़ते रूम रेंट, होस्टल की कमी जैसे समस्याओं के ख़िलाफ कभी एकजुट होकर संघर्ष नहीं करने वाला डीयूड (Dude) विद्यार्थियों का वर्ग भी, छाती चौड़ा करके भ्रष्टाचार की समाप्ति का संकल्प ले रहा था. हर तरफ मानो भ्रष्टाचार रूपी रावण को समाप्त करने का जोश हिलोरें ले रहा था. वह भी दिन याद है जब जंतर मंतर पर धारा 144 लगने के बाबजूद बिन बुलाये भ्रष्टाचारविरोधी बाराती में लोग आये थे. खूब तालिया बजायी. गगनभेदी नारे लगाये. कैंडल जलाये. रैली निकली. फोटो खिंचवाए, कुछ फेसबुक पर लगाने के लिए, कुछ  इस उम्मीद में की अगले दिन किसी अख़बार में छप जाये. फिर भी एक उम्मीद थी. स्थितियां बदलेंगी, ऐसा विश्वाश था . लोग इस आशा के साथ जुड़ते चले गये कि यह व्यक्ति अपने लिए नहीं, देश के लिए लड़ रहा है. भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति समाप्त होंगी. हम नहीं जी पाए ख़ुशी से तो क्या हुआ, हमारी अगली पीढ़ी सुकून से जियेगी.

लेकिन आज उन सारी आशाओं पर पानी फिर गया. सब वादें धरे के धरे रह गये और घोषित हो गयी "अन्ना पार्टी". राजनीति, राजनेताओं, राजनितिक दलों और राजनितिक व्यवस्था को पानी पी-पी कर गलियां देने वाली जुबान राजनेता बनने के सुनहरे सपने बयाँ करने लगी. लोकपाल के मुद्दे पर गाजे-बाजे के साथ शुरू हुआ आन्दोलन चुनाव लड़ने की घोषणा पर जाकर ख़तम होगी, शायद बहुत कम लोगों को विश्वास था. हाव-भांव देखने से तो शुरू से ही पता चलता था कि कहीं न कही एक सुनुयोजित तरीके से राजनीति में जाने की तैयारी चल रही है, लेकिन अन्ना शब्द के प्रभाव के आगे सारे शक हवा में उड़ जाते थे. सारे एन.जी.ओ. चलाने वाली मंडली एकाएक चर्चा का केंद्रबिंदु बनती चली गयी. "अन्ना अन्ना अन्ना.." लोग चिल्लाते गये, भीड़ बढती गयी. बस फिर क्या था. ले ली गयी राजनीति के तथाकथित गटर को साफ करने की ठेकेदारी. अनशन शुरू हुआ था लोकपाल के लिए, ख़तम हुआ राजनितिक दल बनाने के निर्णय पर. आखिर क्यूँ? ऐसे फैसलें लेने की तुरंत क्या जरुरत पड़ी थी ? राजनीति में जाने के इस फैसले के 3-4 दिन पहले ही आइबीएन7 राजदीप सरदेसाई को दिए इंटरव्यू में अन्ना ने यह कहा था कि हम राजनीति में हस्तक्षेप करेंगे, लेकिन पार्टी बनाने का निर्णय अचानक ले लिया जायेगा, किसी ने सोचा तक नहीं होगा. 

सब चाहते है  राजनीति की गन्दगी साफ हों. अच्छे, इमानदार लोग राजनीति में आये. लेकिन इस तरह जनता की भावनाओ की ब्लैकमेलिंग करके किसी पार्टी को बनते शायद पहली बार देखने को मिला है.  चुनाव लड़ने या राजनीति में जाने और न जाने का सवाल अन्ना के राजनीति में जाने के फैसलें में महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि क्या होगा देश की युवा पीढ़ी का, जो बदलाव की उम्मीद रख अन्ना के साथ नारे लगा रहे thथे? क्या इस फैसले से भविष्य में होनेवालें जन-आंदोलनों की सफलता पर ग्रहण नहीं लगा देगी? अब तो किसी भी मुद्दे पर लोग जब संघर्ष करने के लिए सड़कों पर  उतरेंगे तो सरकार कहेगी, " जाओं राजनीतिक दल बनाओं". 

अन्ना आन्दोलन उनके व्यक्तिगत चरित्र और देश में निराश, हताश लोगों की भावनाओं के समग्र प्रयास से शुरू हुआ था. "गैर राजनीतिक तरीके से देश में बदलाव लाया जायेगा और मै उसमे अपनी सहभागिता सुनिश्चित करूँगा", यह विश्वास देकर लोगों को जोड़ा गया,  क्या यह फैसला उन देशवासियों और युवाओं के bभविष्य के साथ छल नहीं है? जब  टीम अन्ना इतनी ही काबिल थी कि वह देश के 120 करोड़ लोगों का दुलारा हो चुनाव जित जाएगी, फिर इतनी ड्रामेबाजी करने की क्या जरुरत थी ? लोकपाल के एकसूत्री मांग पर शुरू हुआ आन्दोलन भटकते भटकते  राजनीति में जाने का फैसला लेने के साथ समाप्त हो गया, तो क्या यह कांग्रेस के इशारे पर नहीं हुई, यह बात देश की जनता कैसे यकीन करेगी? क्या यह फैसला कांग्रेस को फिर से 2014 में सत्तासीन करने के लिए नहीं लिया गया है?


आनेवालें दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि कश्मीर के अलगाववादियों के सबसे बड़े यार और नक्सालियों के समर्थक प्रशांत भूषण क्या -क्या गुल खिलाते है अन्‍ना हजारे और उनकी टीम को अब जनता को जवाब देना होगा कि उनका आंदोलन अराजनैतिक था या राजनीतिक स्वार्थ के लिए था? कही यह सारा खेल पार्टी बनाने के लिए तो नहीं खेली गयी थी। राजनीति में आने का फैसला कितना सही है और कितना  गलत है, यह तो आनेवाला वक़्त ही बताएगा, लेकिन इसका खामियाजा देश में चलने वाले अन्य जन आंदोलनों पर पड़ना तय है. समाज का विश्वास अब शायद ही दोबारा कायम हो पायेगी गैर राजनीतिक आंदोलनों के प्रति| अब देखना बाकी है कि  एन. जी.ओ चलाने वालें तथाकथित सेकुलर लोगों का यह गैंग कितने बड़े परिवर्तन लाएगी. हमारे साथ करोड़ों लोग इंतजार कर रहे है . ईश्वर न करे कुछ भी भारत के ख़िलाफ हों.