Tuesday 18 December 2012

सामूहिक बलात्कार, राष्ट्रीय समस्या

Gang Rape, a national problem. 

कभी कभी लगता है कि भारत महान देश है।पूजनीय है। वंदनीय है। सदियों से यहाँ नारियां सम्मान पाती रही है। वह कभी देवी दुर्गा तो कभी जानकी बनकर पूजी जाती रही है ।  झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई तो कभी चेनम्मा बनकर देश के शत्रुओं का दलन करती रही। उसी भारत में अचानक क्या हो गया कि माँ बहनों की अस्मत खतरे में है ? कब, किसके साथ, कौन सी वारदात हो जाए, किसी को कुछ पता नहीं। ऐसे शर्मनाक स्थिति में कहने को विवश हो जाता हूँ, काहे का भारत महान,  जहाँ महिलाओं का होता है अपमान? भारत महान तो नारी क्यों है परेशान ? 

महिपालपुर, दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार की दर्दनाक घटना ने पुरे देश को हिला कर रख दिया है। वास्तव में देश की राजधानी दिल्ली के सुरक्षित माने जाने वाले इलाके में बलात्कार जैसी घटना दिल दहलाने वाली है। महिलाओ से जुड़ी अपराध की लगातार होती घटनाओ से न केवल दिल्लीवासी बल्कि पूरा देश चिंतित है। यह घटना अभी हाल में ही महिला और बाल विकास मंत्री द्वारा राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर के दौरान दिए गए जानकारी की पुष्टि करता है जिसमे भारत को महिलाओं के लिए चौथा सबसे खतरनाक देश घोषित किया है। यह सर्वे लैंगिक हिंसा, भारत की कुछ कुरीतियाँ, प्रथाएं, धार्मिक परम्परा, जिसमे औरतो को डायन बताकर जिन्दा जला दिया जाता है और मानव व्यापार जैसे मानको के आधार पर थामसन रीयूटर्स फाउंडेशन नामक एक निजी धर्मार्थ संगठन, जिसका मुख्यालय लंदन में स्थित है, ने की है।   

ऐसा नहीं है कि देश में बलात्कार की यह कोई पहली घटना हो (निचे देखे उसके कुछ उदहारण) और इसके बारे में लोगो को पहली बार जानकारी मिली हो। देश भर के स्थानीय मीडिया रिपोर्ट की बात करे तो देश के हर कोने में बलात्कार की घटनाएँ आजकल आम बात हो गयी है। राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो की वेबसाईट की माने तो वर्ष 2011 में  बलात्कार की कुल 24206 घटनाएँ देश में अधिकारिक रूप से दर्ज हुई है। सामाजिक बंधनों, पुलिसिया उदासीनता और राजनितिक दबाब के चलते बलात्कार की घटनाओ के मामलो में ज्यादातर तो रिपोर्ट ही नहीं दर्ज होती। बहुत मुश्किल से कुछ चुनिन्दा मामले ही  उच्च अधिकारीयों या संस्थाओं तक पहुँच पाती है। इसका एक नमूना है, 12 दिसंबर, 2012 को राज्यसभा में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने एक सवाल के जबाब में दी गई जानकारी दी कि राष्ट्रीय महिला आयोग में  वर्ष 2011 में  मात्र  621 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जबकि इस वर्ष (2012, नवम्बर तक) बलात्कार की  केवल 570 शिकायतें आई हैं। गौरतलब है कि इनमें सबसे अधिक शिकायते 319 उत्तर प्रदेश से आई हैं। 

राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो की ही वेबसाईट बताती है कि देशभर में महिलाओ से सम्बंधित 228650 अपराधिक घटनाएँ वर्ष 2011 में दर्ज हुई है। ये सरकारी आंकडे वास्तव में देश की महिलाओ की दयनीय वास्तविकता बयां नहीं करती बल्कि ज़मीनी हकीक़त और भी भयावह है।

दिल्ली की घटना इसलिए भी अत्यधिक चिंतनीय है क्यूंकि ऐसी घटनाएँ देश की राजधानी में हो रही है । राष्ट्रीय मीडिया से लेकर स्थानीय मीडिया तक, सभी इस घटना  को लेकर अपनी चिंता जता रहा है। अगर दिल्ली की अखबार को पलट कर देखे तो शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जिसमे बलात्कार की कोई खबर न छपी हो। राधिका तंवर केस के एक वर्ष भी नहीं हुए, जिसमे पूरी दिल्ली सड़को पर निकल गई थी। ये अलग बात है कि राधिका को न्याय मिला या नहीं, इसकी खबर किसी को अभीतक नहीं है।    

इसके बाबजूद, जबकि आंकड़े और घटनाएँ यह साबित करती है कि बलात्कार, विशेषकर सामूहिक बलात्कार की घटनाएं दिल्ली में काफी बढ़ गयी है लेकिन असलियत तो यह है कि ऐसी घटनाएँ  केवल दिल्ली में ही नहीं, बल्कि पुरे देश में हो रही है। उदहारण के लिए, इसी 14 दिसंबर को छपे एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद रेंज में एक वैसी लड़की (अकबरपुर की रहनेवाली)  के साथ पुलिस वाले ने बलात्कार किया जो खुद कुछ दिनों पहले ही 3 दरिंदो के सामूहिक बलात्कार की पीड़िता थी। दुर्भाग्य देखिए कि यह घटना उस पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया जिसके जिम्मे सामूहिक बलात्कार की जाँच करने की जिम्मेदारी सौपी गई थी(देखे- http://www.indianexpress.com/news/investigating-officer-rapes-gangrape-victim/1045197/)। 

इसी तरह पिछले ही महीने बिहार के कैमूर जिले में एक विकलांग लड़की के साथ चार लोगो ने सामूहिक बलात्कार किया(देखे--http://www.youtube.com/watch?v=-biInCAwqfI) । पुलिस में रिपोर्ट तुरंत दर्ज करवाई गयी, लेकिन पुलिस और सरकार की निष्क्रियता का नमूना देखिए कि इस घटना में एक महीने तक पुलिस अपराधियों को पकड़ना तो दूर उन्हें चिन्हित तक नहीं कर पाई। घटना के एक महीने बाद पीड़ित लड़की द्वारा दर्ज मामला वापस लेने के लिए जब अपराधियो ने दबाब बनाने के लिए उसके घर धमकाने के लिए पहुँच गए तो लड़की ने शोर मचाकर गाँव वालों को जुटा लिया। ग्रामीणों ने मिलकर अपराधियो की जमकार पिटाई की और उन्हें पुलिस को सौंप दिया। अब ये अलग बात कि किसी को यह जानकारी नहीं है कि पुलिस अपराधियो को अपने गिरफ्त में लेकर छोड़ दिया या उन्हें सजा दिलवाने में जुटी हुई है।
बिहार के पटना में ही पिछले दिनों झारखण्ड के एक विधायक के घर पर एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हुई।  यह बात गौर करनेवाली है कि दिल्ली की घटना राष्ट्रीय बहस का विषय बन जाती है लेकिन छोटे शहरों, गांवो की घटना स्थानीय खबरो मे भी सही से जगह नही बना पाती है।

दिल्ली में हुई इस घटना से आम जनता स्तब्ध है। सामाजिक संगठनो में पीड़ा है। राजनितिक वर्ग तो गुस्से में है ही। महिलाओ के साथ लगातार होती घटनाओ से एक बात तो तय हो गई है कि देश में कानून व्यवस्था कम से कम महिलाओ को सुरक्षा देने में सक्षम नहीं है। क़ानूनी प्रावधान होने के बाबजूद बलात्कार, छेड़खानी, क्रूरता की घटना यह बताती है कि कानून का भय अपराधियो के दिलोदिमाग से शिफ्ट होकर आम आदमी के ऊपर आ गया है।   

कारणों की तलाश करते है तो हम पाते है कि समाज एकान्कीपन मे जी रहा है। अपना स्वार्थ नही हो तो लोग दुसरे लोगो की मजबूरी को समझना ही नही चाहते। समाज में दुसरो के साथ क्या जुल्म हो रहे है, उसकी फिक्र करनेवाले लोग बहुत कम पड़ गए है। व्यवस्था से लड़ने की कोशिस नाकाम कर दी जाती है। देखा जाए तो  पुलिस और सरकार निष्क्रिय तब होती है जब समाज नामर्द और बुजदिल बन जाता है।  मै  मानता हूँ कि ऐसी घटनाए शासन की विफलता और समाज की उदासिनता का सूचक है। कमजोर समाज के कारण लगता है लोकतंत्र मजाक बन गया है भारत मे।

महिलाओ के ऊपर हो रही घटनाओ पर देश की चिन्ताए वाजिब है। यह चमकते बदलते और लगातार आर्थीक- मानसिक विकाश की बुलन्दियो को छुते देश के सामने भीषण चुनौती है। ऐसे में बहु-बेटी-बहनो की आबरु इज्जत कब लुट जाए पता नही! लेकिन फिर भी बलात्कार जैसे मुद्दों पर देश में स्वार्थी राजनीती नहीं होनी चाहिए। जब बलात्कार को लेकर भी गन्दी राजनीती शुरू होती है तब देश की आत्मा शर्मसार होती है। यह पुरे देश की समस्या है जो यह दर्शाने के लिए काफी है कि हालत किस कदर नाजुक दौर से गुजर रही है। इन घटनाओ को रोकने के लिए पुरे देश को एकजुट होने की आवश्यकता है। 

आशा है कि अन्य घटनाओ की तरह 1-2 सप्ताह बाद हम सब इस रेप (महिपालपुर,दिल्ली) की घटना को नहीं भूलेंगे और न ही  इस घटना के नामपर फोटो खिचवाने वाले, अखबारो मे छपने के लिए प्रदर्शन व घड़ीयाली आसू बहाकर बयान जारी करने वाले नेता और न ही टीवी पर बहस करनेवाले भी इसे भूलेंगे।  क्यूंकि हाईप्रोफाईल व बड़े अपराधीक घटनाओ, विशेषकर महिलाओ व बच्चो से जुड़े मामले के साथ ऐसा ही होता है। काश! समाज व समाज के तथाकथित ठेकेदार अंतिम न्याय मिलने तक पिड़िता के लिए अपनी सहानुभूति रखे तो ऐसी घटनाए कम क्या, कब समाप्त हो जाए! किसी की मौत और इज्जत लुटने पर छुठी दिलाशा नही , न्याय पाने मे अंतीम दम तक साथ चाहिए।

सिर्फ  कानून बनाने और उसे संसद में पारित करवाने से सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ नहीं रुकने वाली। बलात्कार जैसे मामलो के लिए देश के कानून सक्षम है, जरुरत है तो पीड़िता के त्वरित न्याय हेतु फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना, जैसा कि माननीय न्यायलय की भी इच्छा है (HC, New Delhi, December 06, 2012 --- http://www.hindustantimes.com/India-news/NewDelhi/Fast-track-gangrape-cases-HC/Article1-969447.aspx),बलात्कारियों का सामाजिक बहिष्कार, सामाजिक संवेदनाओ की जागृति व प्रत्येक व्यक्ति की जागरूकता जरुरी है।    


सामूहिक बलात्कार, राष्ट्रीय समस्या 

विधि छात्रा से सामूहिक बलात्कार के मामले में छह गिरफ्तार, बेंगलूर, 20 अक्तूबर- http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/31086-2012-10-20-12-38-36 

तीन आदिवासी महिलाओं एवं एक किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार, अहमदाबाद, 20 अक्तूबर-- http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/31051-2012-10-20-06-41-20

बंगाल के तीन फुटबाल खिलाड़ी किशोरी से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार 01 November 2012,  कोलकाता (एजेंसी) ----http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/8-2009-08-27-03-37-58/31858-2012-11-01-04-27-47

सपा विधायक के घर में अगवा लड़की से ‘सामूहिक बलात्कार’, 15 November 2012, बलरामपुर -- http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/32735-2012-11-15-08-30-41

विधवा से सामूहिक बलात्कार, अलवर, 18/11/2012- http://www.khaskhabar.com/hindi-news/National-widow-rape-22512092.html 

बिहार से किया अगवा, सामूहिक बलात्कार कर हरियाणा में छोड़ा, 18 Nov 2012- http://www.samaylive.com/regional-news-in-hindi/haryana-news-in-hindi/179100/girl-kidnapped-gang-rape-haryana-jind-bihar.html

पुलिसवालों ने किया एक नाबालिग से सामूहिक दुष्कर्म(गैंगरेप), नई दिल्ली, 21/11/2012 -http://www.khaskhabar.com/hindi-news/National-gangrep-of-minors-by-police-2253855.html

भोपाल की महिला से सीहोर में सामूहिक बलात्कार, सीहोर (मप्र), बुधवार, 21 नवंबर 2012-- http://t.co/5ZrzFUsd

छात्रा को बंधक बनाकर सामूहिक बलात्कार, मीरापुर कटरा(UP), 23 Nov 2012-http://www.jagran.com/uttar-pradesh/shahjahanpur-9873469.html

छात्रा से सामुहिक बलात्कार के बाद वीडियों बनाया, मथुरा।- http://loktej.com/?p=9721

Minor gang-raped; nine held in Raipur, 03 Dec 2012-- http://english.samaylive.com/regional-news/chhattisgarh-news/676519258/raipur-gangrape-arrest.html

Jamia students held for minor’s gang rape, Delhi| Dec 05, 2012---http://daily.bhaskar.com/article/DEL-jamia-students-held-for-minor---s-gang-rape-4101076-NOR.html

रायबरेली: छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार, आरोपी फरार, Dec 08, 2012- http://www.khaskhabar.com/hindi-news/National-gangrape-in-doctors-house-2255143.html

Pregnant dalit woman gang-raped, Dec 8, 2012, BHOPA--http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-12-08/bhopal/35688846_1_pregnant-dalit-woman-water-tank-victim

Cop faces action in Rwandan girl gangrape case, New Delhi, December 08, 2012-- http://www.hindustantimes.com/India-news/NewDelhi/Cop-faces-action-in-Rwandan-girl-gangrape-case/Article1-970016.aspx

Katni gang-rape victim threatens suicide, Dec 10, 2012--http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-12-10/bhopal/35725335_1_katni-police-complaint-video-clip

गुड़गांव में महिला के साथ सामूहिक बलात्कार, 4 गिरफ्तार, गुड़गांव, 13 दिसम्बर 2012- http://aajtak.intoday.in/story/women-gang-raped-4-arrested-1-715738.html

Four nabbed for Gurgaon gang-rape, 13 December 2012--http://www.dailypioneer.com/city/115236-four-nabbed-for-gurgaon-gang-rape.html

Dalit widow gang-raped; 4 arrested, Gurgaon, December 13, 2012-- http://www.hindustantimes.com/India-news/Gurgaon/Dalit-widow-gang-raped-4-arrested/Article1-972096.aspx 

Minor gang-raped in Mathura, 13 Dec 2012-http://english.samaylive.com/regional-news/uttar-pradesh-news/676520004/uttar-pradesh-gang-rape.html

Investigating Officer rapes gangrape victim, Lucknow, Fri Dec 14 2012-- http://www.indianexpress.com/news/investigating-officer-rapes-gangrape-victim/1045197/

चिकित्सक के घर में नौकरानी से सामूहिक बलात्कार, नई दिल्ली, 15/12/2012-http://www.khaskhabar.com/hindi-news/National-gangrape-in-doctors-house-2255143.html

24-yr-old gang-raped in Rajouri, Delhi, Dec 15, 2012--http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-12-15/delhi/35836068_1_rajouri-garden-aman-gang


संतोषीनगर में महिला से सामूहिक बलात्कार, रायपुर, 15, Dec, 2012-- http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/103758/2/158

Pipili gang rape: Panel quizzes forensic officer, TNN Dec 16, 2012, CUTTACK-- http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-12-16/bhubaneswar/35850682_1_pipili-gang-prashant-pradhan-sukanta-pradhan

16-yr-old raped at Bihar MLA's house, 5 held Patna,September,29,2012-- http://www.hindustantimes.com/India-news/Patna/16-yr-old-raped-at-bihar-mla-s-house-5-held/Article1-937751.aspx

 



Tuesday 30 October 2012

आश्वासन नहीं, नवरूणा चाहिए

जिस बेटी के सुनहरे सपनों को सुनकर माँ की आँखों में खुशी और चेहरे पर मुस्कराहट होती थी। आज वही मां पिछले 42 दिनों अपनी बेटी के गायब होने से चौबीसों घंटे सिर्फ रोती और विलखती रहती है। उसके मुँह से एक ही शब्द निकलते हैं मेरी बेटी कहां है, कोई तो बताए कहां है..वह किस हालात में होगी..यही शब्द बोलते-बोलते वह रो-रो कर बेहोश हो जाती है। लेकिन उसके रोने का न ते वहां का प्रशासन द्रवित हुआ और न ही वहां की सरकार। सब कुछ वैसे हो रहा है जैसे सरकारी तंत्र का पुराना रिकार्ड रहा है,या यूं कहे तो हालात उससे भी खराब है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शिकायत 


19 सितम्बर को की गयी FIR की कॉपी 







Monday 29 October 2012

बिहार की बेटी को बचाओ, नवरुणा को जल्दी लौटाओं


नवरूणा की सकुशल रिहाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र प्रदर्शन करते हुए 
आजकल बिहार की धरती फिर से गुंडाराज के नज़ारे देखने को मजबूर हो रही है। बिहार में हाल के दिनों में  लगातार अपहरण, हत्या, लुट, बलात्कार, चोरी , छिनतई जैसी घटनाओं में एकाएक बढ़ोतरी हो गयी है। दुर्भाग्य है कि एकतरफ बिहार में प्रशासनिक व्यवस्था चौपट हो गयी तो दूसरी तरफ इन सबसे बेखबर सुशासन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने में व्यस्त है।

पिछले दिनों बिहार सरकार ने मधुबनी में हुए हत्या की गुत्थी सुलझाने में देर लगायी और जिसके   परिणामस्वरूप भड़की हिंसा में  2 लोगो को अपनी जान  देनी पड़ी। जिस प्रकार की प्रशासनिक उदासीनता मधुबनी कांड में देखने को मिली वैसी ही उदासीनता मुजफ्फरपुर से गत 18 सितंबर को अपहृत की गयी 11 वर्षीय  नवरूणा के अपहरण के मामले में भी दिख रहा है। मुजफ्फरपुर के जवाहरलाल रोड में रहने वाली और  सेंट जेवियर्स स्कूल की छात्रा नवरुणा का अपहृत हुए 40 दिन हो गए, लेकिन उसका  अब तक कोई पता नहीं चला है। नवरुणा कहां और कैसी है, इसको लेकर सभी चिंतित हैं। मां-बड़ी बहन नवरुपा की आंखें बेसब्री से इंतजार कर रही हैं।  ह्रयद रोगी पिता अतुल्य चक्रवर्ती परेशान हैं।

शुरूआती जाँच में पता चलता है कि अपहरण में भूमि विवाद और भू-माफियाओं के हाथशामिल है। लेकिन फिलहाल कोई ठोस नतीजे सामने नहीं हैं। 

मधुबनी के मामले की तरह  नवरूणा के मामले को भी प्रेम प्रसंग से जोड़कर पहले तो पुलिस उसकी बरामदगी की मांग पर आनाकानी करती रही और स्थानीय खुफिया अधिकारी की नवरूणा के अपहरण कर्ताओं के चंगुल से छुड़ाने संबंधी सक्रियता के बाद उसे बदल दिया।  लेकिन बाद में जब जनदबाब बढ़ा तो अब  पूरा सरकारी महकमा सक्रीय होने का सिर्फ ढोंग रच रहा है। इन सबके बाबजूद अपहरण के 41 दिन बीत जाने के बाद भी नवरूणा की सकुशल घर वापसी पुलिस सुनिश्चित नहीं करवा पाई है।

मुजफ्फरपुर में अपहरण की कोई यह नयी घटना नहीं है। इससे पहले भी कई घटना की गवाह मुजफ्फरपुर रहा है जिसमे प्रशासन की लापरवाही की भेंट आम जनता को अपनी जान  गवांकर चुकानी पड़ी है। पिछले ही दिनों(2 अक्टूबर) काँटी में बिजली की मांग को लेकर जारी विरोध के समय भी प्रशासन का यही रुख रहा था,. पहले तो विरोध को नजरंदाज किया गया बाद में जब जनता का आक्रोश बाधा तो पुलिस लाठीचार्ज और फायरिंग की घटना हुयी और कई लोग घायल हुए थे।  

लेकिन जिस प्रकार की उदासीनता नवरूणा के मामले में पुलिस और सरकार दिखा रही है, उससे यह स्पष्ठ हो गया है कि  सरकारी व्यवस्था अपराधियों के चंगुल से अभीतक नहीं निकल पाई है और मुजफ्फरपुर की धरती फिर से गोलू के अपहरण और फिर उसकी हत्या से उपजे दर्दनाक हालात से जूझने को दुबारा मजबूर दिख रही है। ( देखे - http://t.co/lekCZdQO) चार वर्षीय मासूम गोलू के अपहरण के समय भी सरकारी उदासीनता के नज़ारे देखने को मिले थे, जिसके बाद गोलू की हत्या कर दी गयी। गोलू की हत्या की खबर से पुरे देश में आक्रोश की लहर पैदा हो गयी थी। संसद से सड़क तक आन्दोलन हुए। मुजफ्फरपुर में हत्याकांड के विरोध में जब प्रदर्शन आयोजित हुआ तो हिंसक भीड़ बेकाबू हो गयी, जिसके बाद पुलिस लाठीचार्ज में सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 20 से अधिक लोग मारे गए थे। क्या सरकार फिर से यही स्थिति मुजफ्फरपुर में पैदा करना चाहती है ?

दुर्भाग्य तो यह है कि मीडिया अबतक इस मुद्दे पर खामोश है या यु कहे की नीतीश के राज में हो रही इस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में लिखने की ताकत नहीं बची। पुलिस मात्र आश्वासन देने में व्यस्त है (देखे- http://www.jagran.com/bihar/muzaffarpur-9779731.html ).  

नवरूणा की सकुशल रिहाई के लिए न केवल मुजफ्फरपुर में बल्कि पुरे देश में आन्दोलन की आग सुलग रही है। पिछले दो दिनों से मुजफ्फरपुर में जब स्थानीय लोगो ने विरोध जताना शुरू किया है, तबसे पुलिस और प्रशासन सक्रीय होने लगी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी नवरूणा के लिए आवाज़ उठनी शुरू हो गयी है। 

इसी विरोध के क्रम में कल "बिहार पुलिस- आश्वासन नहीं, नवरूणा चाहिए", "बिहार में सुशासन सरकार, हत्या-चोरी और बलात्कार", "बिहार की बेटी को बचाओ, नवरुणा को जल्दी लौटाओं " के नारे के साथ मुजफ्फरपुर के छात्रों सहित अनेक विद्यार्थीयों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस स्थित विवेकानंद मूर्ति के समीप कैंडल मार्च और विरोध प्रदर्शन आयोजित कर नवरूणा के अपहरण पर अपना विरोध जताया एवं उसकी सुरक्षित घर वापसी सुनिश्चित करवाने की सरकार से  मांग की। 

कैंडल मार्च में उपस्थित छात्रों ने मानवाधिकार आयोग और बाल आयोग जाने का भी निर्णय लिया है. साथ ही अगले २-३ दिनों में अगर अपहरणकर्ताओं के चंगुल से नवरूणा को रिहा करवा पाने में प्रशासन विफल रहता है तो बिहार भवन का भी घेराव किया जायेगा.

दिल्ली में पढने वालें मुजफ्फरपुर सहित पुरे बिहार के छात्र इस घटना से अत्यंत दुखी है। बिहार में बढ़ते हत्या, बलात्कार और अपहरण की घटना न केवल चिंताजनक है। हम सभी सरकार से मांग करते  है कि आम बिहारियों कि सुरक्षा सरकार सुनिश्चित करें। 


Wednesday 24 October 2012

अपनों से ही हारा भारत







भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए बलिदानों सपूतों की याद में 




सन् 1962 के युद्ध में चीन से मिली पराजय आज भी प्रत्येक भारतीयों के सीने में चुभती रहती है। युद्ध में मिली हार के मर्म ने कितने भारतीयों को रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। यह हार भारत के लिए सिर्फ एक राजनितिक हार नहीं थी। इस हार ने उन तमाम भारतीयों की भावनाओं को तार-तार किया, जिन्होंने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारों को पूरे जोश के साथ बुलंद किया था। होश तो उन्हें तब आया जब वे अपनी “दोस्ती” को विश्वासघात के तराजू पर राजनीतिक दाव-पेंचों के बटखरे से तौलता हुआ पाए।



चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तो यह देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए देश विभाजन के दर्द से निजात पाने व पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास की परिभाषा गढ़ने में लगा था। लेकिन चीन ने अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए एक तरफ  भारत से दोस्ती का ढोंग रचा तो दूसरी तारफ पीठ पीछे खंजर मारने का काम किया।



सभी इस बात को मानते है कि देश के सुरक्षा के प्रति बेपरवाह तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की गलतिया चीन युद्ध में मिली पराजय के प्रमुख कारण थे। युद्ध में हुई हार के बाद अपनी गलती स्वीकारते हुए नेहरु ने संसद में कहा भी था कि  ”हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था।”  बाद में हार के कई कारण गिनाये गए। अनेक लोगों को संदेह के घेरे में पाया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन बुक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत के नेतृत्व में एक जाँच समिति भी बनायीं गयी, जिसने चीन से हुए युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की। जांच रिपोर्ट प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ वरिष्ठ मंत्रियों को 1963 में ही सौंप दी गयी थी लेकिन उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है। कहा जाता है कि उस रिपोर्ट में नेहरु की नीतियों को हार का जिम्मेदार घोषित किया गया था, इसलिए उसे सार्वजनिक करने में कांग्रेसी सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। बाद में सभी सरकारों ने उसे यह कहकर जनता के बिच लाने का प्रयास नहीं किया कि इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से भारत चीन संबंधों पर असर पड़ेगा।



खैर, वैसे में जब सभी इस बात को स्वीकार करते है कि चीन से हुए युद्ध में पराजय नेहरु की गलत विदेश नीतियों और सुरक्षा सबंधित कुछ लोगों की रणनीतिक चूक का नतीजा थी, हार के अन्य कारणों पर भी नजर दौड़ाना जरुरी है। जब हम गहराई  से हार के कारणों की पड़ताल करते है तो लगता है कि इस पराजय के लिए नेहरु की भूलों से ज्यादा 1962 के उन गद्दारों को याद करने की जरुरत है, जिन्होंने युद्ध के दौरान भारत में रहकर भारत के ही खिलाफ काम किया था। ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्यूंकि जिन संगठनों ने 1962 में देश के खिलाफ एकजुट होकर दुश्मनों का साथ दिया था, वह आज भी किसी न किसी रूप में भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए हैं।



आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आजादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फिराक में जुटा था। पश्चिमी जीवनशैली जीने के आदी लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित नेहरु ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के तराने गा रहे थे। इस हिंदी-चीनी दोस्ती के स्वप्न देखने और चीन के प्रति अगाध प्रेम उमड़ने की नीति के मूल में वामपंथियों का दिमाग काम कर रहा था। पर कौन जानता था कि भाईचारे की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि ‘यह युद्ध नहीं बल्कि, समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संघर्ष है।’



कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be an aggressor) ”। ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहा था। जबकि कुछ वामपंथी तटस्थ थे तो कुछ भारत सरकार के पक्ष में भी थे, जिनमें एस.ए. डांगे प्रमुख रहे। वामपंथी डांगे को छोड़ दें तो कोई और बड़ा नाम भारत के पक्ष में खड़ा नहीं दिखा, अधिकांश वामपंथियों ने चीन का पक्ष ले रखा था। ई.एम.एस नम्बुरिपाद,  ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे, उनमे बी.टी. रानादिवे, पी. सुंदरय्या, पी.सी. जोशी, बसवापुन्नैया सहित उस समय के अधिकांश बड़े वामपंथी नेता शामिल थे। बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज पर सारी सूचनाये इकठ्ठा कर चीन को सूचित करने में भेदिये की भूमिका निभा रहे थे। युद्ध के समय वामपंथियों की चीन के समर्थन में किये इस देशद्रोही कार्य का कुछ दिनों पहले एक विदेशी खुफिया एजेंसी ने खुलासा भी किया था, जिसके बाद इनकी असलियत प्रमाणिक तरीके से दुनिया के सामने आ गयी।



वैसे समय में जब हम इस युद्ध के 50 वर्ष बीतने के बाद भी हार के कारणों पर चर्चा कर रहे है, हमें  चर्चा करते समय यह बात ध्यान में रखनी ही होंगी  कि गद्दार वामपंथियों को भी इस हार के लिए कम कसूरवार नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिनकी हमदर्दी भारत में रहने के बादजूद चीनियो के साथ थी। युद्ध के दौरान जिस तरीके से वामपंथियों ने चीनियों का साथ दिया, वह शर्मनाक था। जिस तरह वामपंथियों ने युद्ध की वजह से भारत पर आये संकट को दरकिनार कर चीनियों का समर्थन व सहयोग किया, वह विश्व इतिहास में देशद्रोह के सबसे घिनौने करतूतों में शामिल है। पूरी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार से, जिस थाली में खाकर वामपंथी बड़े हुए थे, उसमें ही छेद करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। वामपंथियों ने दुश्मनों के साथ मिलकर अपने ही घर को लूटने में सहभागिता निभाई और अंततः देश को गद्दारी की कीमत चुकानी पड़ी। भारत को पराजयश्री का दंश झेलना पड़ा। अपनी जमीन खोनी पड़ी । 




ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब वामपंथियों ने भारत के खिलाफ साजिशों को अंजाम दिया हो। आजादी के संघर्ष के दौरान भी वामपंथियों ने अंग्रेजों का साथ देकर अपनी देशद्रोही छवि का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया था। आजादी के संघर्ष के दौरान वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। आज़ादी के लड़ाई को पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाये जाने की बात कहते हुए वामपंथियों ने इसमें कभी हिस्सा नहीं लिया। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के साथ गलबहिंया किये काम करते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आजादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार लेलिन और माओ के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आजादी के पश्चात अनेक वर्षों तक वामपंथियों ने भारतीय संविधान की अवहेलना की और उसे स्वीकारने से भी इंकार किया।



लेकिन दुखद तथ्य यह है कि चीन के साथ हुए युद्ध में मिली हार से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के बजाए जेल में डालने का काम किया। सभी जानते है कि 1962 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुई, जो अंततः उनकी मौत की वजह भी बनी।



ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनीतिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते फिरे, लेकिन इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना आज भी मुश्किल है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा जमाने और भारत की लोकतान्त्रिक ढ़ांचे को कमजोर करने  का लगातार षड्यंत्र रच रहे हैं। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार कही न कही इन्ही लोगो से जुड़े हैं जो आजादी से पहले अंग्रेजों का और आजादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे हैं। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है।



वैसे समय में जबकि आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है, इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाये थे। एक तरफ चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए हैं तो दूसरी तरफ वामपंथी आतंकवाद से भारत आन्तरिक रूप से असुरक्षित महसूस कर रहा है । हमें जरुरत है, इनसे सावधान रहने की।

Thursday 18 October 2012

Saturday 13 October 2012

Pariwartan 2020

हमारे प्रयाशों की बदौलत एल एस कॉलेज में मनाई गयी लंगट बाबू  की 100 वी पुण्यतिथि 








Saturday 8 September 2012

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव- अस्तित्व की तलाश में छात्र राजनीति


देश की छात्र राजनीति की चर्चा हो और उसमे दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम न आये, ऐसा हो  नहीं  सकता | यह एक आम धारणा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र लोकतंत्र के इस पहले पर्व में न केवल बढ़ चढ़कर भाग लेते रहे है बल्कि देश भर के छात्रों का प्रतिनिधित्व करनेवाले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) में अपने पसंद के प्रतिनिधि को जिताकर पुरे देश से जुड़े मुद्दे को उठाते भी है | भला कौन भूल सकता है अनेक आंदोलनों के केंद्र क्रांति चौक को, जो लोकतंत्र का गला घोटने वालें आपातकाल के ख़िलाफ न केवल ऐतिहासिक संघर्ष की हृदयस्थली बनी बल्कि इसने पुरे देश में जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की दिशा भी तय की| बिना अवरोध के लगातार अस्तित्व में बना रहने वालें डूसू ने न केवल छात्र राजनीति बल्कि  देश के राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाने वालों की कर्मभूमि भी बना | राजनीति के शिखर पर बैठे अजय माकन, अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे लोग राजनीति के इस लौन्चिंग पैड (डूसू) की ताकत का एहसास दिलाते है|

लेकिन देश, समाज सहित छात्र-हितों से जुड़े मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाने वाला केंद्र डूसू अब मौन है | प्रतिरोध चापलूसी के गीत गाती है| डूसू का छात्र हित और छात्र, दोनों से सरोकार ख़त्म हो गये | क्रांति चौक की आवाज़ अब क्रांति के स्वर नहीं गुनगुनाती बल्कि छात्र राजनीति की सजी चिताओं पर बैठकर क्रंदन करती नज़र आती है |  न कोई विचारधारा, न ही व्यक्तिगत तौर पर विचारधाराओं से कोई सरोकार बचा है | न छात्रों से जुड़े मुद्दों में दिलचस्पी बची और न ही डूसू के सिद्धांतों में निष्ठा| टिकट पाने से लेकर चुनाव जितने के तरीको को देखकर लगता है मानों भारतीय लोकतंत्र संसद से लेकर शैक्षणिक परिसर तक अपने जिन्दा रहने की जद्दोजहद कर रहा है | डूसू में अब देश, समाज और छात्रों से जुड़े विषय को लेकर भी कोई गंभीरता नहीं दिखती |

लगता है आदर्श छात्र संघ गुजरे ज़माने की बात हो गयी, जब निष्ठा, योग्यता डूसू पदाधिकारी बनने की पात्रता थी और इस आधार पर बने पदाधिकारी छात्र हितों के लिए न केवल संवेदनशील थे बल्कि उसके लिए लम्बी लडाई का माद्दा भी रखते थे|  परन्तु विद्यार्थियों के समाधान के केंद्र जब नामांकन में दलाली वसूलने और फर्जी नामांकन का केंद्रबिंदु बन जाए तो कोई हमें समझाए कैसे बची रहेगी हमारी डूसू में आस्था ? कैसे करे हम समर्थन? क्यूँ लगाये नारे डूसू जिंदाबाद के जब इसने अपने ही नारे को भुला दिया ?

डूसू के सिद्धांतों के विपरीत बने ये हालात और छात्र राजनीति के इस मत्वपूर्ण केंद्र की ऐसी दुर्दशा अचानक नहीं हुई बल्कि इसकी बुनियाद काफी पुरानी है | छात्रों के वाजिब मुद्दों से परे जाकर जबसे चुनाव होने शुरू हुए, तबसे डूसू के क्षरण का सिलसिला शुरू हो गया | ग्लैमर, पैसे, जाति जैसे-जैसे डूसू की राजनीति में अपनी छाप छोड़ना शुरू किया वैसे वैसे डूसू अपनी पहचान खोती गयी| आज भले ही राष्ट्रिय नेताओं की दिलचस्पी से डूसू चुनाव राष्ट्रीय मीडिया में खबर बन जाता हो लेकिन डूसू की लोकप्रियता की वास्तविकता मीडिया में आयी खबर बयान नहीं करती | असलियत तो यह है कि मुद्दाविहीन, दिग्भ्रमित और व्यक्तिगत स्वार्थों पर आधारित डूसू राजनीति से अधिकांश छात्रों की रूचि समाप्त हो गयी है| विगत वर्षों में हुए चुनावों का ब्यौरा उठाया जाए तो यह स्पष्ट दिखता है कि लगातार वोट देने वालों छात्रों की  संख्या घटती चली जा रही है | अन्ना के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने वालें छात्रों ने ही पिछली बार के चुनावों में बहुत कम मतदान किये |

छात्र राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले लोगों में पिछले कुछ वर्षों से इस बात पर चिंता प्रकट की जाती रही है कि डूसू के चुनाव में केवल 30-35 फीसदी मतदान होते है | ऐसे में मुश्किल से 10,000 के आस पास वोट पाकर डूसू की सत्ता पर काबिज़ होने वालें नेता क्या वास्तव में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रतिनिधित्व करते है? क्या छात्र वास्तव में "मैं राजनीति को पसंद नहीं करता ", "आइ हेट पोलिटिक्स" की मानसिकता से ग्रसित होकर चुनाव के रूप में होने वाले इस सालाना जलसे में भाग नहीं लेता, यह सोचकर कि कुछ होना जाना तो है नहीं, फिर क्यूँ करे वोट ?  क्या छात्रों की इन दलीलों में दम है, जब कोई छात्र यह कहता है कि "डूसू पदाधिकारी विद्यार्थियों से जुड़े हितों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते और न ही उन्हें हमारे पढाई-लिखाई व करियर को लेकर कुछ भला करने की चिंता है| वे कुछ नहीं करनेवालें " |
उपरोक्त बातों पर अगर छात्र राजनीति को जिन्दा रखने वालों की तरफ से चिंता प्रकट की जाती है तो वह महज क्षदम बुद्धिजीविता से ग्रसित होकर दिए गए बयान न होकर वास्तविकता की तरफ इशारा करते है और डूसू की असलियत बताते है| ये कुछ ऐसे विषय है जिनके पीछे डूसू की घटती लोकप्रियता के ठोस कारण छिपे है|
जब लोग कम मतदान की शिकायत करते है और कहते है कि छात्रों को भारी सख्या में मतदान के लिए बाहर निकलने चाहिए, तो सवाल है आखिर कोई क्यूँ लें दिलचस्पी डूसू चुनाव में, जब स्थितियां बदहाल हो और उसके ठीक होने के उपाय दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हो |छात्र हितों से जुड़े मुद्दे जब सिर्फ चुनावी वादे ही रहे, जब चुनाव जितने के बाद डूसू ऑफिस पदाधिकारियों के चुनाव में नारे लगाने वाले लोगो का अड्डा बन जाये, जब डूसू ऑफिस से छात्रों से जुड़ी समस्यायों के लिए उठने वालें आवाज़ बंद होकर निरुला में मारपीट करने की कर्कस आवाज़ में परिवर्तित हो जाये,  तब हमें समझ में आता है कि आखिर छात्रों की दिलचस्पी डूसू चुनाव को लेकर कम क्यूँ होती जा रही है और डूसू चुनाव में मतदान कम क्यूँ होते है |

डूसू की राजनीति की बात करे तो डूसू डीयू का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता | यह दिल्ली विश्वविद्यालय के मात्र 49 कॉलेज का प्रतिनिधित्व करता जिसमे सेंट स्टीफेंस, लेडी श्रीराम कॉलेज, जीसस मेरी, दौलतराम जैसे महत्पूर्ण कॉलेज सहित अनेक विभाग शामिल ही नहीं है | गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय लगभग 3 लाख छात्रों का प्रतिनिधित्व करता है| 77 महाविद्यालयों के अलावा 4 पी जी सेंटर, 8 सम्बद्ध संस्थाओं, 5 मान्यता प्राप्त सहित 90  से ज्यादा विभाग, जिसमे स्नातोकोत्तर(पीजी) की पढाई वालें सेंटर भी शामिल है, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासनिक  अधिकारिता में आते है| स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग दिल्ली विश्वविद्यालय में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जहा लगभग 2.50 लाख विद्यार्थी पढ़ते है | लेकिन डूसू इन सबका प्रतिनिधित्व न तो प्रत्यक्षतः करता है और न ही अप्रत्यक्षतः |
एक दो को छोड़कर मुख्यधारा में शामिल सभी छात्र संगठनों और पार्टियों की लिस्ट से वैसे सभी कॉलेज बाहर रहते है जहां चुनाव नहीं होते| जिनका वास्ता रहता भी है वे सिर्फ आंदोलनों में भीड़ जुटाने के काबिल ही इन्हें समझते है| प्राथमिकता सूचि से बाहर इन संस्थानों में स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि इनसे जुड़े मुद्दे तबतक प्रकाश में नहीं आ पाते जबतक मीडिया का हस्तक्षेप न हो |

इस चुनावी उपेक्षा का सबसे बड़ा  नमूना स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग (एसओएल) से जुड़े छात्र है, जिनके मुद्दे उठाना, उसके लिए लड़ना और उन्हें अंजाम तक पहुचाने में किसी की कभी रूचि ही नहीं रहती | दिलचस्प बात यह है कि डूसू चुनाव प्रचार में सबसे ज्यादा सक्रीय क्लास करने की मज़बूरी से स्वतंत्र एसओएल के छात्र ही रहते है | नारेबाजी करने साथ साथ प्रत्याशियों के साथ घुमने वालें झुण्ड ओपन के ही छात्रों की रहती है| लेकिन जब इनसे जुड़े मुद्दे सामने आते है तो कोई भी इनकी मदद को आगे नहीं आता | पिछले दिनों डीयू में लागु सेमेस्टर एसओएल में नहीं लागु हुआ, जिसकी वजह से अब ओपन से पढाई करने वालें छात्र रेगुलर कॉलेज में नामांकन नहीं ले पाएंगे| इतने बड़े मुद्दे और लाखों विद्यार्थियों से जुड़े इस विषय पर कही भी विरोध और उग्र प्रदर्शन देखने को नहीं मिला |  राधिका तंवर के हत्या के मुद्दे को जोर शोर से उठाकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश करने वालें सभी छात्र संगठन जर्मन के शोध विद्यार्थी की हत्या पर चुप्पी साधे रहे | दौलत राम कॉलेज की छात्राओं के साथ हॉस्टल में हो रहे अत्याचार का खुलासा जब एक दैनिक अख़बार ने किया तो मीडिया में बयान देने के अलावा किसी ने भी उनके लिए प्रदर्शन नहीं किये | हाल में ही ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट विश्व कप में जितने वालें भारतीय दल के कप्तान उन्मुक्त को जब परीक्षा देने से रोका गया तब भी कोई प्रदर्शन नहीं हुए| केवल इसलिए कि वे सेंट स्टीफेंस के विद्यार्थी है और वह कॉलेज डूसू में नहीं आता |  ऐसे अनेक मामले है जहां नॉन-डूसू कॉलेज के छात्रों  से  न तो डूसू और न ही छात्र संगठन अपना सरोकार रखना चाहते है |

ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर डूसू में छात्र अपनी रूचि क्यूँ दिखायेगा, जब उससे जुड़े मुद्दे ही उठाये नहीं जायेंगे! जिस तरह वन्दे मातरम चाहे जितना पुराना हो जाये, उसे हर सरकारी कार्यक्रम में गाया ही जायेगा| उसी तरह पिछले 12 -13 सालों से कुछ मुद्दे ऐसे ही है जिन्हें डूसू चुनाव के घोषणा पत्र में जरुर जगह दी जाती है और उसे पूरा करने के तराने गाए जाते है | बस पास सभी बसों में मान्य हो, मेट्रों में रियायती पास दी जाये, होस्टल की संख्या बढाई जाए जैसे कुछ ऐसे ही मुद्दे है जो हर वर्ष चुनावी घोषणा पत्र की शोभा बढ़ाने को मौजूद रहते है | ऐसे में लगता है कि देशभर के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करनेवालें डूसू के चुनावी घोषणा पत्र भी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की तरह हो गए जो सिर्फ वादे ही करते है| वह उन्हें निभाने, पूरा करने में अपनी शक्ति और दिमाग नहीं लगाना चाहती, क्यूंकि ये कुछ ऐसे मुद्दे है जिनके नाम पर पहली बार डीयू में नामांकन लेने वालें छात्रों को लुभाया जा सकता है | शोध कार्यों को बढ़ावा देंगे, प्रतिभाशाली व गरीब छात्रों को अधिक से छात्रवृतियाँ दिलवाएंगे, छात्र-शिक्षक में बढती दूरियों को पाटकर दिल्ली विश्वविद्यालय को विश्वस्तर का बनाने की कोसिस करेंगे जैसे वाक्य भाषणों में भी अपनी जगह नहीं पा पाती|
दिल्ली विश्वविद्यालय में समस्यायों का अंबार है जिनसे विद्यार्थी लगातार जूझ रहे है | छात्र प्रतिनिधि के नाते समस्यायों के समाधान से सम्बंधित इनकी आवाज़ सही जगह पहुचे, इसकी नैतिक जिम्मेदारी डूसू प्रतिनिधियों की रहती है| लेकिन दुर्भाग्य, ऐसा पिछले कई वर्षों से देखने में आ रहा है कि चुनाव जितने के बाद न केवल चुनावी घोषणाये धरे के धरे रह जाते है, बल्कि आम समस्यायों से भी डूसू का वास्ता नहीं रहता |

बड़े अरमान लेकर लाखों विद्यार्थी दिल्ली के बाहर से आकर अपनी पढाई डीयू में पूरा करने को आते है | अपने को शीर्ष पांच केन्द्रीय विश्वविद्यालय में गिनती करवाने के बाबजूद डीयू 10 प्रतिशत छात्रों के रहने हेतु छात्रावास उपलब्ध नहीं करवा पाया है | छात्रावासों के अभाव में नार्थ कैम्पस के हडसन लेन, तिमारपुर, लखनऊ रोड, मॉल रोड, विजय नगर, कमला नगर, साऊथ कैम्पस के सत्यनिकेतन, मुनिरका, मोतीबाग सहित दिल्ली के अन्य इलाकों में किसी तरह अपना कॉलेज जीवन बिताने के मजबूर छात्रों की वेदना को किसी भी डूसू पदाधिकारी ने आजतक समझने को काबिल नहीं समझा| बड़े बड़े वादें करके छात्रों को लुभाने व उनके वोट बटोरने वालें किसी डूसू पदाधिकारी ने कभी भी किसी इलाके में बढ़ते रूम रेंट, मकान मालिकों की प्रताड़ना के ख़िलाफ अपनी आवाज़ नहीं बुलंद की| उलटे सबने प्रश्रय ही दिया | दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास के इलाकों में आज तक रूम रेंट कण्ट्रोल एक्ट प्रभावी ढंग से क्यूँ नहीं लागु हो  पाया, यह जाँच का विषय है |  वैसे भी खाए-पिए-अघाए घरों के लाडले जिन्होंने शान-ओ-शौकत में ही अपनी जीवन बितायी और राजनीति के सीढियों को चापलूसी, दलाली और पैसे के सहारे चढ़े, वे आखिर क्यों सुने अपने घर से दूर अपने ही देश में दोयम दर्जे के व्यवहार जीने को मजबूर छात्रों की मज़बूरी | क्या वास्ता है उनका |

अधिकांशतः डीयू में हिंदी प्रदेशों के विद्यार्थी नामांकन लेते है जिनमे से अधिकांश की पृष्ठभूमि ग्रामीण या छोटे शहरों की होती है | जब ये विद्यार्थी अपनी पढाई डीयू में प्रारंभ करते है तो सबसे ज्यादा दिक्कत भाषा को लेकर होती है | पुस्तकालयों में हिंदी की किताबे ही हिंदी में मिल पति है| अन्य विषयों की पुस्तकें ज्यादातर अंग्रेजी में ही होती है | मुसीबतों का पहाड़ तब टूट जाता है जब क्लास में भी अंग्रेजी के ही लेक्चर सुनने पड़ते है | भाषा की दिक्कत के कारण न तो ये छात्र अंग्रेजी मीडियम स्कूल से पढ़े-लिखे छात्रों से दोस्ती कर पाते और न ही शिक्षक से खुलकर बातें| ये समस्या महज कुछ चंद विद्यार्थियों को सामना नहीं करना पड़ता बल्कि ये संख्या हजारों में है | डूसू छात्रों के प्रतिनिधि के नाते इस समस्या के समाधान हेतु कुछ कर सकता था, मसलन पुस्तकालयों में हिंदी की किताबें उपलब्ध करवाने, भाषा विकास केंद्र खुलवाने, कॉलेज/विभागों में ट्यूटोरियल क्लास लगवाने | लेकिन इसके एक भी उदहारण नहीं दीखते | यहाँ तक कि वर्षों से यह मांग उठती रही है कि नोटिस बोर्ड पर चिपकने वालें सूचनाये अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी में भी होने चाहिए और डूसू को इसके लिए प्रयास करने कि जरुरत है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ| हिंदी जहां की राष्ट्रभाषा हो, उसके सम्मान में डूसू हमेशा बेरुखी के भाव को लिए रहा |

ऐसे अनेक मुद्दे है जिनपर सोचा जाए तो यह लगता है कि ऐसे समय में जबकि देश में बड़े पैमाने पर व्यवस्था परिवर्तन को लेकर बहस चल रही है| वैसे समय में इस परिवर्तन की शुरुआत डूसू चुनाव से ही शुरू की जानी चाहिए क्यूंकि इसकी दरकार छात्र राजनीति को ज़मीनी तौर पर जिन्दा रखने के लिए बहुत जरुरी है| अगर ऐसा नहीं होता तो इसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव दिल्ली कीसंकीर्ण जातिवादी-क्षेत्रवादी राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा | छात्र हितों व छात्रों से जुड़ी समस्यायों को लेकर डूसू इसी तरह मौन रहेगा| निर्माण की वजाए पुस्तकालय तोड़े जायेंगे | वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी पर्चे चिपकाने और उसे फाड़ने के केंद्र बने रहेंगे और छात्रों को चुनावी सपने दिखाकर ठगने की प्रक्रिया जारी रहेगी |
देश का युवा चाहता है, डूसू चुनाव की भूमिका राजनीति चमकाने, दारू पिलाने, फ़िल्में दिखाने, गाड़ी पर घुमाने जैसी बातों से हटकर छात्रों के समस्या समाधान का केंद्र बने, छात्र समस्यायों के लिए निर्णायक संघर्ष करनेवालें नेताओं के कारण जाना-पहचाना जाये| डूसू का जीवंत होना न केवल डीयू  के छात्रों के लिए बल्कि देश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य को एक सही दिशा देने का भी काम करेगा | दिल्ली विश्वविद्यालय सबका है, इसलिए सबकी अभिलाषा भी डूसू के गर्व लौटते देखने में ही है | उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि पिछले डूसू पदाधिकारियों की राह पर न चलते हुए वर्तमान डूसू छात्र-हितों के लिए वर्ष भर सकिय रहेगा | साथ ही साथ डूसू राजनीतिक सुधार की प्रयोग भूमि भी बनेगा ताकि देश को आदर्श छात्र संघ की नजीर पेश हो सकें |

Friday 3 August 2012

अन्ना आन्दोलन - युवा भारत के भविष्य के साथ छल


"भारत माता की जय ", "वन्दे मातरम","इन्कलाब जिंदाबाद", "भ्रष्टाचारियों सावधान-जाग उठा है नौजवान", " बहुत हो गया, अब देश की जनता कतई भ्रष्टाचार नहीं सहेगी", "अन्ना तुम संघर्ष करो- हम तुम्हारे साथ है"....ये कुछ नमूने है जो जिन्दगी में पहली बार किसी बड़े आन्दोलन को जागते, उठते और अंगड़ाई लेते देखते समय सुनाई पड़ा था. अन्य युवाओं की तरह मैं भी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान था और इस उम्मीद में उस भीड़ की तरफ खिंचा चला गया कि शायद अब तो इस शब्द (भ्रष्टाचार) से छुटकारा मिलकर रहेगा. वैसे ही जैसे पोलियो, प्लेग जैसी महामारी ख़त्म हो गयी थी. लेकिन सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया. राजनीति की स्वार्थ से प्रेरित आन्दोलन पार्टी बनाने की घोषणा के साथ समाप्त हो गयी. अनशन को ताकत बताने वाले लोग अनशन की महत्ता को ही दरकिनार कर दिए और राजनीति के भूखे लोगों की राह पर दौड़ पड़े. 

अन्ना पार्टी बनाने की घोषणा से सबसे ज्यादा कोई मायूस है तो वह है युवा वर्ग. aअपना कैरियर दावँ पर लगाने को तैयार युवाओं के सभी सपने अन्ना की एक घोषणा से चकनाचूर हो गये. युवाओं की टीम अन्ना द्वारा चलायी गये आन्दोलन में सक्रिय भूमिका का एक नमूना आज भी बखूबी याद है कि जब अन्ना की गिरफ़्तारी हुई थी और उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के समीप छत्रशाल स्टेडियम लाया गया था. राजनीति को कॉलेज की कैंटीन में gaगलियां देने वाले सभी मित्र सड़कों पर थे. विश्वविद्यालय मेट्रो से लेकर आजादपुर मेट्रो स्टेशन तक लोगों की भीड़ उमर पड़ी थी. सेमेस्टर-सिस्टम, कॉलेज की शैक्षणिक समस्यां, बढ़ते रूम रेंट, होस्टल की कमी जैसे समस्याओं के ख़िलाफ कभी एकजुट होकर संघर्ष नहीं करने वाला डीयूड (Dude) विद्यार्थियों का वर्ग भी, छाती चौड़ा करके भ्रष्टाचार की समाप्ति का संकल्प ले रहा था. हर तरफ मानो भ्रष्टाचार रूपी रावण को समाप्त करने का जोश हिलोरें ले रहा था. वह भी दिन याद है जब जंतर मंतर पर धारा 144 लगने के बाबजूद बिन बुलाये भ्रष्टाचारविरोधी बाराती में लोग आये थे. खूब तालिया बजायी. गगनभेदी नारे लगाये. कैंडल जलाये. रैली निकली. फोटो खिंचवाए, कुछ फेसबुक पर लगाने के लिए, कुछ  इस उम्मीद में की अगले दिन किसी अख़बार में छप जाये. फिर भी एक उम्मीद थी. स्थितियां बदलेंगी, ऐसा विश्वाश था . लोग इस आशा के साथ जुड़ते चले गये कि यह व्यक्ति अपने लिए नहीं, देश के लिए लड़ रहा है. भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति समाप्त होंगी. हम नहीं जी पाए ख़ुशी से तो क्या हुआ, हमारी अगली पीढ़ी सुकून से जियेगी.

लेकिन आज उन सारी आशाओं पर पानी फिर गया. सब वादें धरे के धरे रह गये और घोषित हो गयी "अन्ना पार्टी". राजनीति, राजनेताओं, राजनितिक दलों और राजनितिक व्यवस्था को पानी पी-पी कर गलियां देने वाली जुबान राजनेता बनने के सुनहरे सपने बयाँ करने लगी. लोकपाल के मुद्दे पर गाजे-बाजे के साथ शुरू हुआ आन्दोलन चुनाव लड़ने की घोषणा पर जाकर ख़तम होगी, शायद बहुत कम लोगों को विश्वास था. हाव-भांव देखने से तो शुरू से ही पता चलता था कि कहीं न कही एक सुनुयोजित तरीके से राजनीति में जाने की तैयारी चल रही है, लेकिन अन्ना शब्द के प्रभाव के आगे सारे शक हवा में उड़ जाते थे. सारे एन.जी.ओ. चलाने वाली मंडली एकाएक चर्चा का केंद्रबिंदु बनती चली गयी. "अन्ना अन्ना अन्ना.." लोग चिल्लाते गये, भीड़ बढती गयी. बस फिर क्या था. ले ली गयी राजनीति के तथाकथित गटर को साफ करने की ठेकेदारी. अनशन शुरू हुआ था लोकपाल के लिए, ख़तम हुआ राजनितिक दल बनाने के निर्णय पर. आखिर क्यूँ? ऐसे फैसलें लेने की तुरंत क्या जरुरत पड़ी थी ? राजनीति में जाने के इस फैसले के 3-4 दिन पहले ही आइबीएन7 राजदीप सरदेसाई को दिए इंटरव्यू में अन्ना ने यह कहा था कि हम राजनीति में हस्तक्षेप करेंगे, लेकिन पार्टी बनाने का निर्णय अचानक ले लिया जायेगा, किसी ने सोचा तक नहीं होगा. 

सब चाहते है  राजनीति की गन्दगी साफ हों. अच्छे, इमानदार लोग राजनीति में आये. लेकिन इस तरह जनता की भावनाओ की ब्लैकमेलिंग करके किसी पार्टी को बनते शायद पहली बार देखने को मिला है.  चुनाव लड़ने या राजनीति में जाने और न जाने का सवाल अन्ना के राजनीति में जाने के फैसलें में महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि क्या होगा देश की युवा पीढ़ी का, जो बदलाव की उम्मीद रख अन्ना के साथ नारे लगा रहे thथे? क्या इस फैसले से भविष्य में होनेवालें जन-आंदोलनों की सफलता पर ग्रहण नहीं लगा देगी? अब तो किसी भी मुद्दे पर लोग जब संघर्ष करने के लिए सड़कों पर  उतरेंगे तो सरकार कहेगी, " जाओं राजनीतिक दल बनाओं". 

अन्ना आन्दोलन उनके व्यक्तिगत चरित्र और देश में निराश, हताश लोगों की भावनाओं के समग्र प्रयास से शुरू हुआ था. "गैर राजनीतिक तरीके से देश में बदलाव लाया जायेगा और मै उसमे अपनी सहभागिता सुनिश्चित करूँगा", यह विश्वास देकर लोगों को जोड़ा गया,  क्या यह फैसला उन देशवासियों और युवाओं के bभविष्य के साथ छल नहीं है? जब  टीम अन्ना इतनी ही काबिल थी कि वह देश के 120 करोड़ लोगों का दुलारा हो चुनाव जित जाएगी, फिर इतनी ड्रामेबाजी करने की क्या जरुरत थी ? लोकपाल के एकसूत्री मांग पर शुरू हुआ आन्दोलन भटकते भटकते  राजनीति में जाने का फैसला लेने के साथ समाप्त हो गया, तो क्या यह कांग्रेस के इशारे पर नहीं हुई, यह बात देश की जनता कैसे यकीन करेगी? क्या यह फैसला कांग्रेस को फिर से 2014 में सत्तासीन करने के लिए नहीं लिया गया है?


आनेवालें दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि कश्मीर के अलगाववादियों के सबसे बड़े यार और नक्सालियों के समर्थक प्रशांत भूषण क्या -क्या गुल खिलाते है अन्‍ना हजारे और उनकी टीम को अब जनता को जवाब देना होगा कि उनका आंदोलन अराजनैतिक था या राजनीतिक स्वार्थ के लिए था? कही यह सारा खेल पार्टी बनाने के लिए तो नहीं खेली गयी थी। राजनीति में आने का फैसला कितना सही है और कितना  गलत है, यह तो आनेवाला वक़्त ही बताएगा, लेकिन इसका खामियाजा देश में चलने वाले अन्य जन आंदोलनों पर पड़ना तय है. समाज का विश्वास अब शायद ही दोबारा कायम हो पायेगी गैर राजनीतिक आंदोलनों के प्रति| अब देखना बाकी है कि  एन. जी.ओ चलाने वालें तथाकथित सेकुलर लोगों का यह गैंग कितने बड़े परिवर्तन लाएगी. हमारे साथ करोड़ों लोग इंतजार कर रहे है . ईश्वर न करे कुछ भी भारत के ख़िलाफ हों.