Tuesday 24 April 2012

जंगल की आवाज़ सुनो

बड़ी तकलीफ होती है जब अपने पाँवों के नीचे की जमीन सुलगती है। लेकिन उनका क्या जिन्हें सुलगते आग के दर्द को दिन-रात झेलना पड़ता है। उनकी व्यथा कौन समझ सकता है जो अपनी जुबान से अपने ऊपर बीत रही जुल्मों सितम बयान नहीं कर सकते। जो अपनी दर्द को किसी से साझा भी नहीं कर सकते और अपनी जिन्दगी आग को समर्पित करने पर मजबूर है।
जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ जंगलों में लगने वाली आग की विभीषिका की और उस आग की तपिस में झुलसते वन्य प्राणियों की। गर्मी का मौसम शुरू होते ही देश के जंगलों में आग धधकने प्रारंभ हो गये है। पिछले कुछ दिनों दिनों में उत्तराखंड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़  के जंगलों में लगातार आग लगने की घटनाये बढ़ गयी है, जिसकी जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से आये दिन हमें मिल रही है।

उत्तरखंड में अभी तक अकेले 21 अप्रैल को राज्यभर में आग लगने की 110 घटनाएं हुई। इसमें करीब 162 हेक्टेयर  से अधिक  जंगल राख हो गए। झुलसने वाले वन क्षेत्रों में 105 हेक्टेयर रिजर्व फारेस्ट में है जबकि 57 हेक्टेयर राजस्व व वन पंचायतों के अधीन आने वाला क्षेत्र है। 15 फरवरी के बाद शुरू हुए फायर सीजन में अब तक 450 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें करीब एक हजार हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। अकेले रिजर्व फारेस्ट में ही छह सौ हेक्टेयर से अधिक जंगल आग की भेंट चढ़ गए हैं।  22 अप्रैल रविवार सुबह रुद्रप्रयाग स्थित पुनाड़ के निकट चीड़ के जंगलों में आग लग गई जिसने विकराल रुप धारण कर पेड़-पौधे और वनस्पतियों को राख कर दिया। इसी तरह कार्बेट टाइगर रिजर्व के बिजरानी क्षेत्र में, जहां बाघ व हाथी बहुतायत क्षेत्र में वास करते है, २१ अप्रैल को दिन भर धधकती रहीद्य बीते कुछ दिनों से नैनीताल क्षेत्र में ओखलकांडा के कुलौरी, देवस्थल के नीचे, अलपौनीखाल व सुरंग गांव के चीड़ वनों में भी आग धधक रही है। बदरीनाथ वन प्रभाग के अंतर्गत लासी रांगतोली, गोपेश्वर के सोनला के अलावा बदरीनाथ वन प्रभाग के नंदप्रयाग रेंज के अंतर्गत जैंती, कोट, कंडारा और हड़कोटी, अल्मोड़ा के विकास खंड के मोहान से लगे मछोड़, टोटाम व सौराल के पास भी बीते कुछ दिनों से जंगल के धू-धू कर जलने की सूचनाये मिल रही हैं।
                      ये तो बात हुई उत्तराखंड के जंगलों की| जब हम झारखण्ड के जंगलों की सुध लेते है तो पाते है की हजारीबाग के गौतम बुद्ध वन्य प्राणी आश्रयणी क्षेत्र के महानेटांड के समीप वन में आग लग गई, जिससे लाखों के नुकसान हुए। यही हल लोहरदग्गा के जंगलों का भी है जो लगातार आग के चपेटे में आ रहा है।
इसी तरह छत्तीसगढ़ के दरभा से लेकर कोंटा तक के जंगल इन दिनों आग के चपेट में है। आग लगने का नजारा १० मार्च को कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में भी देखा गया था। तीरथगढ़ के समीप घने जंगलों भी भीषण आग के विध्वंस को झेल चूका है। इस आग के चपेट में आने से हजारों छोटे पौधे जलकर राख हो गये। खासतौर से तेंदूपत्ता के उत्पादन पर इसका भारी असर पडने के आसार है। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान ही नहीं तोंगपाल, सुकमा, दोरनापाल, कोंटा के जंगल भी आग के चपेट में आने से पुरी तरह से जल चुका है।कुल मिलकर पूरा बस्तर ही आग की चपेट में है। इसी तरह यवतमल (पूर्वी महाराष्ट्र) के तिपेश्वर अभयारण्य के वन क्षेत्र में बीते दिनों से आग लगने की घटनाये सामने आई थी।

यह पहली बार नहीं हो रहा है कि वहां के जंगलों में आग लगी हो। हर वर्ष ऐसी घटनाये इन प्रदेशों के जंगलों के लिए आम बात सी हो गयी है। हर वर्ष आग लगने से करोड़ों की वन्य संपदा को नुकसान पहुचता है लेकिन सबसे ज्यादा कष्ट किसी को पहुँच रहा है तो वह है उन जंगलों के निवासी, बेजुबान वन्यप्राणी। जंगलों में आग लगने से वन्य-प्राणी कराहने को मजबूर है और खामोश होकर संकटों से सामना कर रहे है।  वो टकटकी लगाये इस उम्मीद में स्थानीय लोगो के पास भागे चले आते है कि हमें आग से बचाओ लेकिन इनकी आवाज को सुनने की वजाए खतरा समझकर इन्हें मार दिया जा रहा है।
ऐसी हालत में उम्मीद की किरण स्थानीय जनता से जागने की आशा की जानी चाहिए थी लेकिन जंगलों पर निर्भर स्थानीय समाज भी खामोशी से सारी घटनाओं को एक तमाशे की तरह देख रहा है और कही कही इन आग को लगाने वालों में भी शामिल पाता देखा जा रहा है। उत्तराखंड में नयी घास उगाने, पेड़ काट कर उसके  निशान मिटने के चक्कर में लोग जंगलों में आग लगा रहे है तो झारखण्ड के लोहरदग्गा में महुआ चुनने के चक्कर में जंगल आग की भेट चढ़ रहे है।
सरकार के तरफ से जंगलों में आग लगने से रोकने के सन्दर्भ में कोई ठोस करवाई भी नहीं होती। बस औपचारिकता निभाई जाती है। देश में वनों का प्रतिशत कुल क्षेत्रफल के मुकाबले 33 फीसदी अनिवार्य घोषित करने वाली वर्ष 1988 की वननीति के बाद भी वनों के खत्म होने की मुख्य वजह बनी, वन की आग का प्रकोप जारी है। देश में 6,75,538 वर्गकिलोमीटर में जंगल होने के दावे होते रहे हैं। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.55 प्रतिशत ही है। इनको और फैलाने और 45 हजार प्रकार की वनस्पतियों को बचाए रखने की चुनौती सरकार के सामने है लेकिन सरकार और सरकारी पदाधिकारियों(वन पदाधिकारी) के रुख से यह जाहिर हो जाता है कि उनकी भी मंशा सही नहीं है। जब जंगलों में आग लगती है तो सुचना देने के घंटों बाद वन्य कर्मी आग बुझाने के उपकरण के साथ पहुचते है। हर जगह से एकसमान शिकायत मिलती है कि वन्य कर्मी सक्रीय, सजग नहीं रहतेद्य वही दूसरी ओर स्थानीय जनता का भी अपेक्षित सहयोग आग बुझाने में नहीं मिलती। ऐसे में लगता है सरकारी लालफिताशाही और आम जनता के उपेक्षा का शिकार पूरा जंगल हो गया है।
पुरे घटनाक्रम को नजदीकी से देखने, परखने पर पता चलता है कि आग लगने की घटनाये हर वर्ष होती है लेकिन कटु सच्चाई यह है कि सरकार के पास न आग लगने से पहले और न ही आग लगने के बाद के लिए कोई रणनीति या उचित प्रबंध है।
ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या जानवरों को इसी तरह मरने दिया जाना चाहिए या कुछ करने भी चाहिए? जीवन जीना जिस तरह मनुष्य को अच्छा लगता है उसी तरह उन जानवरों को भी अपनी जिन्दगी जीना जरुर पसंद होगी। जीने का अधिकार आम आदमी को तो है लेकिन क्या हम उनके लिए भी कुछ ऐसा ही उपाय कर सकते है? क्या हमें उन बेजुबानों के प्राण पर जो संकट के बादल छाये हुए है, उन्हें हटाने हेतु कुछ नही करने चाहिए ? आम जनता को तो कभी जयप्रकाश, कभी अन्ना तो कभी रामदेव मिल जाते है जो आम जन के जीवन से जुड़ी समस्याओं के समाधान हेतु जननायक बनते है। क्या उन बेजुबान वन्य प्राणियों  की आवाज, जो हर वर्ष बाकि विषयों के शोर-गुल में दब जाती है, उनके लिए किसी को "वन नायक" नहीं बनने चाहिए। वो न तो वोटर है और न ही विकास के भूखे आधुनिक मनुष्य को विकसित करने में योगदानकर्ता, ऐसे में आखिर कौन सुनेगा उनकी आवाज?