Wednesday 24 October 2012

अपनों से ही हारा भारत







भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए बलिदानों सपूतों की याद में 




सन् 1962 के युद्ध में चीन से मिली पराजय आज भी प्रत्येक भारतीयों के सीने में चुभती रहती है। युद्ध में मिली हार के मर्म ने कितने भारतीयों को रुलाया और मायूस किया है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। यह हार भारत के लिए सिर्फ एक राजनितिक हार नहीं थी। इस हार ने उन तमाम भारतीयों की भावनाओं को तार-तार किया, जिन्होंने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारों को पूरे जोश के साथ बुलंद किया था। होश तो उन्हें तब आया जब वे अपनी “दोस्ती” को विश्वासघात के तराजू पर राजनीतिक दाव-पेंचों के बटखरे से तौलता हुआ पाए।



चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तो यह देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए देश विभाजन के दर्द से निजात पाने व पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास की परिभाषा गढ़ने में लगा था। लेकिन चीन ने अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए एक तरफ  भारत से दोस्ती का ढोंग रचा तो दूसरी तारफ पीठ पीछे खंजर मारने का काम किया।



सभी इस बात को मानते है कि देश के सुरक्षा के प्रति बेपरवाह तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की गलतिया चीन युद्ध में मिली पराजय के प्रमुख कारण थे। युद्ध में हुई हार के बाद अपनी गलती स्वीकारते हुए नेहरु ने संसद में कहा भी था कि  ”हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था।”  बाद में हार के कई कारण गिनाये गए। अनेक लोगों को संदेह के घेरे में पाया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन बुक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत के नेतृत्व में एक जाँच समिति भी बनायीं गयी, जिसने चीन से हुए युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की। जांच रिपोर्ट प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ वरिष्ठ मंत्रियों को 1963 में ही सौंप दी गयी थी लेकिन उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है। कहा जाता है कि उस रिपोर्ट में नेहरु की नीतियों को हार का जिम्मेदार घोषित किया गया था, इसलिए उसे सार्वजनिक करने में कांग्रेसी सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। बाद में सभी सरकारों ने उसे यह कहकर जनता के बिच लाने का प्रयास नहीं किया कि इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से भारत चीन संबंधों पर असर पड़ेगा।



खैर, वैसे में जब सभी इस बात को स्वीकार करते है कि चीन से हुए युद्ध में पराजय नेहरु की गलत विदेश नीतियों और सुरक्षा सबंधित कुछ लोगों की रणनीतिक चूक का नतीजा थी, हार के अन्य कारणों पर भी नजर दौड़ाना जरुरी है। जब हम गहराई  से हार के कारणों की पड़ताल करते है तो लगता है कि इस पराजय के लिए नेहरु की भूलों से ज्यादा 1962 के उन गद्दारों को याद करने की जरुरत है, जिन्होंने युद्ध के दौरान भारत में रहकर भारत के ही खिलाफ काम किया था। ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्यूंकि जिन संगठनों ने 1962 में देश के खिलाफ एकजुट होकर दुश्मनों का साथ दिया था, वह आज भी किसी न किसी रूप में भारत के वजूद को मिटाने पर तुले हुए हैं।



आजाद भारत लगातार विदेशी षड़यंत्र का शिकार बना और आजादी मिलने के तुरंत बाद कई युद्ध झेलने को मजबूर हुआ। एक तरफ पाकिस्तान लगातार हमले पर हमले किये जा रहा था तो दूसरी तरफ चीन भी भारत को अपना शिकार बनाने के फिराक में जुटा था। पश्चिमी जीवनशैली जीने के आदी लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित नेहरु ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के तराने गा रहे थे। इस हिंदी-चीनी दोस्ती के स्वप्न देखने और चीन के प्रति अगाध प्रेम उमड़ने की नीति के मूल में वामपंथियों का दिमाग काम कर रहा था। पर कौन जानता था कि भाईचारे की आड़ में भारत के वजूद को मिटाने का अभियान चल रहा है। 1962 का युद्ध हुआ और इस युद्ध के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों ने अपनी असली पहचान उजागर करते हुए चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि ‘यह युद्ध नहीं बल्कि, समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संघर्ष है।’



कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता (China cannot be an aggressor) ”। ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। सभी वामपंथियों का गिरोह इस युद्ध का तोहमत तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व की कट्टरता और उत्तेजना के मत्थे मढ़ रहा था। जबकि कुछ वामपंथी तटस्थ थे तो कुछ भारत सरकार के पक्ष में भी थे, जिनमें एस.ए. डांगे प्रमुख रहे। वामपंथी डांगे को छोड़ दें तो कोई और बड़ा नाम भारत के पक्ष में खड़ा नहीं दिखा, अधिकांश वामपंथियों ने चीन का पक्ष ले रखा था। ई.एम.एस नम्बुरिपाद,  ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा कुछ प्रमुख नाम जो चीन के समर्थन में नारे लगाने में जुटे थे, उनमे बी.टी. रानादिवे, पी. सुंदरय्या, पी.सी. जोशी, बसवापुन्नैया सहित उस समय के अधिकांश बड़े वामपंथी नेता शामिल थे। बंगाल के वामपंथी तो भारत-चीन युद्ध के समय खबरिया चैनलों की तर्ज पर सारी सूचनाये इकठ्ठा कर चीन को सूचित करने में भेदिये की भूमिका निभा रहे थे। युद्ध के समय वामपंथियों की चीन के समर्थन में किये इस देशद्रोही कार्य का कुछ दिनों पहले एक विदेशी खुफिया एजेंसी ने खुलासा भी किया था, जिसके बाद इनकी असलियत प्रमाणिक तरीके से दुनिया के सामने आ गयी।



वैसे समय में जब हम इस युद्ध के 50 वर्ष बीतने के बाद भी हार के कारणों पर चर्चा कर रहे है, हमें  चर्चा करते समय यह बात ध्यान में रखनी ही होंगी  कि गद्दार वामपंथियों को भी इस हार के लिए कम कसूरवार नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिनकी हमदर्दी भारत में रहने के बादजूद चीनियो के साथ थी। युद्ध के दौरान जिस तरीके से वामपंथियों ने चीनियों का साथ दिया, वह शर्मनाक था। जिस तरह वामपंथियों ने युद्ध की वजह से भारत पर आये संकट को दरकिनार कर चीनियों का समर्थन व सहयोग किया, वह विश्व इतिहास में देशद्रोह के सबसे घिनौने करतूतों में शामिल है। पूरी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार से, जिस थाली में खाकर वामपंथी बड़े हुए थे, उसमें ही छेद करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। वामपंथियों ने दुश्मनों के साथ मिलकर अपने ही घर को लूटने में सहभागिता निभाई और अंततः देश को गद्दारी की कीमत चुकानी पड़ी। भारत को पराजयश्री का दंश झेलना पड़ा। अपनी जमीन खोनी पड़ी । 




ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब वामपंथियों ने भारत के खिलाफ साजिशों को अंजाम दिया हो। आजादी के संघर्ष के दौरान भी वामपंथियों ने अंग्रेजों का साथ देकर अपनी देशद्रोही छवि का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया था। आजादी के संघर्ष के दौरान वामपंथियों की अंग्रेजों से यारी जगत प्रसिद्ध है। आज़ादी के लड़ाई को पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाये जाने की बात कहते हुए वामपंथियों ने इसमें कभी हिस्सा नहीं लिया। अंग्रेजों के जाने के बाद भी वामपंथियों का भारत विरोध थमा नहीं बल्कि वे लगातार भारत विरोधियों के साथ गलबहिंया किये काम करते रहे। लम्बे संघर्ष और बलिदानों के पश्चात् भारत को मिली आजादी वामपंथियों को कभी रास नहीं आई। वे लगातार लेलिन और माओ के इशारे पर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे। आजादी के पश्चात अनेक वर्षों तक वामपंथियों ने भारतीय संविधान की अवहेलना की और उसे स्वीकारने से भी इंकार किया।



लेकिन दुखद तथ्य यह है कि चीन के साथ हुए युद्ध में मिली हार से बुरी तरह टूटने के बावजूद वामपंथी मोह में फंसे नेहरु ने इन देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाने के बजाए जेल में डालने का काम किया। सभी जानते है कि 1962 के युद्ध में मिली हार नेहरू को बर्दास्त नहीं हुई, जो अंततः उनकी मौत की वजह भी बनी।



ये वामपंथी भले ही आज मुख्यधारा में शामिल होने का नाटक करते हो। राजनीतिक दल बनाकर लोकसभा, विधानसभा का चुनाव लड़ने, भारतीय संविधान को मानने और भारत भक्त बनने के दावें करते फिरे, लेकिन इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर यकीन करना आज भी मुश्किल है। सोवियत संघ रूस के बिखरने से वामपंथ और वामपंथी मिटने के कगार पर है, क्योंकि आज न तो इन्हें वामपंथी देशों से दाना-पानी चलाने को पैसा मिल रहा है और न ही राजनीतिक समर्थन। फिर भी भारत विरोध के इनके इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं। आज के समय में ये जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के नाम पर भारत के प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा जमाने और भारत की लोकतान्त्रिक ढ़ांचे को कमजोर करने  का लगातार षड्यंत्र रच रहे हैं। भारत विरोधी सारे संगठनों के गिरोह के तार कही न कही इन्ही लोगो से जुड़े हैं जो आजादी से पहले अंग्रेजों का और आजादी के बाद भारत विरोधियों का साथ देते रहे हैं। इनके इरादे आज भी देश की सरकार को उखाड़कर, भारत की संस्कृति-सभ्यता को मटियामेट करने व भारत नाम के देश का अस्तित्व मिटने का ही है।



वैसे समय में जबकि आज चीन एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है, इसके लिए वह सारे हथकंडे अपना सकता है जो उसने 1962 में आजमाये थे। एक तरफ चीन द्वारा साम्राज्यवादी राजनीतिक और आर्थिक नीति अपनाने की वजह से आज भारत के संप्रभुता और सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरे उत्पन्न हो गए हैं तो दूसरी तरफ वामपंथी आतंकवाद से भारत आन्तरिक रूप से असुरक्षित महसूस कर रहा है । हमें जरुरत है, इनसे सावधान रहने की।

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