Monday 9 January 2012

""बोल"" की लब आजाद है तेरे


महिला अधिकार के लिए समाज में हमेशा एक बहस चलती रही है |  धर्मिक विचारों को अपनी सोच का लेप चढ़ाकर और फिर उसे अपने ही रंग में रंगकर, अपने ही चश्में से देखना जब प्रारंभ हो जाता है तब महिला हमेशा ही आजीवन एक अघोषित जेल की कैदी बनकर रह जाती है और उसके सपने और अरमान मिट्टी के धुल बनकर धर्म के ठेकेदारों की तानाशाही आंधी में उड़ जाती है | इतिहास गवाह है कि संकीर्ण  दायरे में सिमटी विचारधारा और दकियानुशी सोच मे बंधी सामाजिक व्यवस्थाओं के कुछ अंधे अनुयायी महिलाओं को मिलने वाले प्रत्येक नागरिक अधिकारों को लेकर हमेशा हो-हल्ला मचाता रहे है | जब भी दुनिया में स्वतंत्रता और समानता पर आधारित समाज का निर्माण करने की बात चलती है तो हमेशा महिलाओं को दरकिनार कर उनकी महत्ता को नकार दिया जाता है | कुछ विशेष उदाहरणों( झाँसी की रानी, सुषमा स्वराज आदि ) को रटी -रटाई अंदाज़ में सुनाकर एवं  महिला सशक्तिकरण के जोरदार  नारे लगाकर आधी-आबादी  को तथाकथित कामयाब होने का प्रमाण-पत्र थमा दिया जाता है लेकिन परिस्थितियां बदलती नज़र नहीं आती | हम महिला अधिकार के नामपर  खुलेआम अपनी मनमर्ज़ी से  सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने की वकालत नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें घर की दीवारों  से निकालकर समाज व देश के विकाश में हाथ बटाने का समर्थन कर रहे है | केवल चंद उदहारण गिनाने  एवं  विधानसभा और लोकसभाओं में सीटें आरक्षित कर देने भर से कुछ होने-जाने वाला नहीं जबतक की सर उठाकर जीने लायक माहौल न बना दिया जाये |
कल रात पाकिस्तान में प्रतिबंधित फिल्म ""बोल "" देखने के बाद  यही विचार मन में उमड़ रहे थे कि- वाकई महिलाएं आज भी अपनी चारदीवारी में सिमटी, दुनिया से दूर, सब कुछ खोकर सिसकियाँ भर रही है | पवित्र कुरान की आयतों का गलत ब्याख्या कर महिलाओं के ऊपर जुल्म करना क्या वाजिब है?  यह अलग बात है की यह किसी फिल्म की कहानी मात्र है परन्तुं  वास्तविकता से यह कोशो दूर नहीं बल्कि ज़मीनी हकीक़त की एक झलक जरुर प्रस्तुत करती है | प्रगतिशील मुस्लिम समाज के मानसिकता  को फिल्म ने बखूबी दिखाई है और हमें जरुर इसे स्वीकार करना चाहिए कि--- महिला सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन मात्र नहीं है बल्कि उसकी अहमियत और जरुरत उतनी ही है जितना पुरषों की | हमें आरक्षण की बहस से आगे बढ़कर सामाजिक बराबरी के सांचे में महिलाओं को उचित स्थान देना ही पड़ेगा | समय है हम उनकी वजूद को नकारने की वजाए मुख्यधारा में शामिल होने दें वरना क्रांति की मशाल थामें महिलाएं बहुत जल्द हल्ला बोलने वाली है | आग्नि  के ताप और सूर्य के तेज़ ज्यादा देर तक ढकना पसंद नहीं करते क्यूंकि उनकी प्रकृति ऐसा करने की उन्हें इज़ाज़त नहीं देती |

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