Wednesday 15 February 2012

बलिदान का आह्वाहन करती गंगा

मनेरी बांध से आठ किमी बाद सुखी गंगा
इन दिनों धर्म नगरी हरिद्वार का "मातृ सदन" गंगा के अस्तित्व को बचाने और इसके अविरल प्रवाह को बाधित करने के ख़िलाफ लड़ाई लड़ रहे गंगाप्रेमियों का संघर्षस्थली बनी हुई है| गंगा को समर्पित और 1967 ई. में स्थापित यह वही जगह है जहा स्वामी निगमानंद ने गंगा के अस्तित्व को बचाने की खातिर अपने प्राणों की आहुति दी थी | प्रकृति की गोद में और गंगा के तट पर अवस्थित मातृ सदन, गंगा को बचाने के लिए लड़ाई लड़ने वालें एक केंद्र के रूप में जाना जाता है तथा अपने स्थापना समय से ही यह आश्रम लगातार सशक्त और प्रभावी संघर्ष कर गंगा को अतिक्रमण से बचाने में लगा हुआ है| यह आश्रम फिर से शासन प्रशासन व माफिया से लड़ाई लड़ने के साथ साथ अवैध खनन और अंधाधुंध व मनमाने तरीके से प्रदूषित की जा रही गंगा को बचाने के लिए ऐतिहासिक बलिदानी के संकल्प के साथ तप करने मे लगा है | आश्रम धर्म के नाम पर ढोंग रचने की वजाए आस्था के प्रत्यक्ष स्वरुप गंगा को बचाने के लिए हरसंभव काम कर रहा है जिससे गंगा अविरल प्रवाहित होती रहे | इसी कड़ी में गंगा को बचाने के लिए पहले भी संघर्ष कर चुके और गंगा के खात्मे के लिए बनायीं जा रही 650 करोड़ के लाहोरीनागपाला सहित 3 विद्युत् परियोजना को रद्द करवाने वालें प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.डी. अग्रवाल, पिछले एक सप्ताह से अनशन कर रहे है| प्रो. अग्रवाल 12 बन रही बांधों को हटाने व 120 प्रस्तावित बांधों को निरस्त करने और गंगा की रक्षा के लिए सरकार से ठोस कदम उठाये जाने की मांग को लेकर 8 फरवरी से ही अन्न त्याग मातृ सदन मे गंगापुत्र निगमानंद की समाधी के समीप बैठकर अनशन कर रहे है और एक महीने के बाद जल त्यागने की घोषणा भी कर चुके है | "गंगा सेवा अभियानम" के तहत अनशन कर रहे प्रो. अग्रवाल गंगा में बढ़ते जल प्रदुषण, उत्तराखंड में चल रही विद्युत् परियोजनाओं के साथ साथ गंगा रक्षा के लिए सरकारी धन की लूट के बारे में पहले भी अनशन कर सरकार और समाज का ध्यान आकृष्ट करवाने का काम किया था | प्रो. अग्रवाल गंगा की दुश्मन बनने वाली बांधों के निर्माण रोकने और तमाम विद्युत् परीयोजनाओं को रद्द करने की मांग को लेकर पिछले वर्ष भी अनशन पर बैठे थे | उसके बाद सकते में आई सरकार ने गंगा और प्रो. अग्रवाल की सुध लेते हुए तमाम परियोजनाओं को रद्द करने की बात भी कही थी । उस समय वित्त मंत्री और सरकार के प्रमुख रणनीतिकार प्रणब मुखर्जी द्वारा गंगा के सन्दर्भ में सरकार की नीतियों का उल्लेख करते हुए गंगा पर बन रही तीन परियोजनाओं को रद्द किया तथा सरकार की घोषणा सम्बन्धी पत्र तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के हाथों प्रो. अग्रवाल को भिजवाया था । इस पत्र में गंगा की रक्षा के लिए हरसंभव उपाय करने का आश्वाशन प्रो. अग्रवाल एवं देश से किया गया था| 19 दिसंबर, 2011 को संसद में भी गंगा के उपर जबरदस्त बहस हुई थी । इस जीवंत बहस में तमाम राजनितिक प्रतिबद्धतता से ऊपर उठते हुए सभी सदस्यों ने गंगा के सांस्कृतिक महत्व को स्वीकारते हुए इसके रक्षा हेतु सरकार से हरसंभव उपाय करने और गंगा के रक्षा की मांग की, जिसके बाद सरकार की तरफ से जयंती नटराजन ने सदस्यों के द्वारा उठाये गये मुद्दे के प्रति अपनी सहमती जताते हुए ठोस कदम उठाने का भरोसा देश को दिया था | परन्तु बांधों से मुक्त रखने के साथ साथ गंगा को राष्ट्रिय ध्वज जैसा सम्मान और राष्ट्रिय पशु-पक्षियों की तरह संरक्षण देने की गंगा प्रेमियों की मांग आज तक अधूरी ही है और गंगा को लेकर सरकार की उदासीनता लगातार बरक़रार है | गंगा के लिए बने गंगा प्राधिकरण(नेशनल गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी ) की मात्र २ बैठक पिछले ३ साल में हुई जिसमे २-३ घटे ही चर्चा हो पाई | प्राधिकरण अनेवालें दिनों में किसी निर्णय तक पहुंचेगा, इसकी संभावना भी नहीं दिखाई देता| सरकारी लाल फीताशाही गंगा के मामले में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है जिसमे गंगा के प्रति सरकारी प्रतिबद्धतता की पोल खुलती दिखा रही है| 
                                            गंगा को लेकर सरकार की नीतियों में बदलाव की गुंजाईश देश स्वामी निगमानंद के बलिदान के बाद देख रहा था। परन्तु सरकार द्वारा बलिदान को भूल अलकनंदा नदी पर बांध बनाने की अनुमति देने से गंगा रक्षा को लेकर सरकार से प्रभावी कदम उठाने की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है |
आज स्थति यह है कि गंगा को नजदीकी से देखने और उसके मातृत्व भाव को फिर से अनुभूति करने पर महसूस होता है कि मानों कुछ कह रही है गंगा | लग रहा है कि कलकल गायन की स्वर लहरी, अविरल प्रवाह में सदियों से प्रवाहित, भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पहचान और जीवनदायनी "गंगा" अपने ही प्राणों की भीख मांग रही है|  बड़े-बड़े बांधों और अवैध खनन के कारण मोक्षदायनी गंगा अपने उदगम स्थल देवभूमि उत्तरांचल में ही दम तोड़ती हुई देखी जा सकती है | मैदानी इलाकों में सिचाई के नाम पर नहर निकालकर और पहाड़ी इलाकों में बांध बना गंगा को सुखाकर बिल्डिंग बनाने का षड़यंत्र रचा जा रहा है । आखिर पिने वालें पानी से ही कपड़े साफ करने व सिचाई  करने और बिजली पैदा करने की कोशिश क्यों की जा रही है जबकि अनेक नदियों का पानी बाढ़ के रूप में बह जा रही है और मनुष्य का दुश्मन बन गयी है ? सारे नालें गंगा में ही जाकर मिल रही है लेकिन इस दिशा में कुछ ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे और न ही गंगा की सफाई की योजनाये धरातल पर उतरती दिख रही है । सिर्फ और सिर्फ बांध बनाने की जिद पर सरकार अड़ी हुई है।  गंगा पर बांध बनाने से विकाश होने की दलील भी खोखली है क्यूंकि इसमें क्षेत्र के विकाश के वजाए भ्रष्ट नेताओं व माफियाओं के विकाश और प्रकृति के विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हुआ। इस बात की पुष्टि तमाम सर्वेक्षणों को देखने से मालूम पड़ती है । जिस विकाश का ढोल पीटकर बांध बनाये गये उससे देश को न तो कुछ मिला और न ही कुछ मिलने जा रहा है, सिवाए कुछ मेगावाट बिजली उत्पादन करने में ११५ किमी गंगा को सुखाने के । तमाम दस्तावेजों से यह सिद्ध हो चूका है कि बांध न तो भारी मात्रा में रोजगार पैदा करने में सक्षम है और न ही क्षमता के अनुरूप बिजली उत्पन्न करने में । उदहारणस्वरुप, 1984 में बनी मनेरी बांध-१ सौ लोगों को भी रोजगार देने में सक्षम नहीं है और पिछले १० वर्षों से अपनी कुल क्षमता(90MW) का 50% भी बिजली उत्पादन कर पाने में सफल नहीं हो पायी। लेकिन इसने गंगा की मूल धारा को समाप्त कर दिया और अनेकों लोगों को विस्थापित होने पर मजबूर कर दिया । अंग्रेजों ने भी गंगा के प्रवाह को रोकने की योजना बनायीं थी परन्तु मदनमोहन मालवीय, कुछ राजाओं, शंकराचार्यों तथा जनता द्वारा विरोध किये जाने पर अँगरेज़ मंद पड़ गये थे तथा तमाम योजनाये रद्द कर दी थी । उस समय के तत्कालीन संयुक्त प्रांतीय मुख्य सचिव आइ.सी. एस.आर. बर्नस ने 20-04-1917 को गंगा के प्रवाह को मुक्त बनाये रखने सम्बन्धी एक आदेश (संख्या-१००२) जारी किया था तथा गंगा की रक्षा खातिर उपाय किये व तमाम परियोजनाए रुकवा दी । जिस गंगा पर शताब्दी वर्ष पूर्व अंग्रेजों ने भी बांध बनाने की योजना रद्द कर गंगा का सम्मान किया हो, उसपर अपने ही लोगों द्वारा कहर बरपाना गंगा की महत्ता को अस्वीकार करने जैसा है। आखिर परमाणु समझौतें से देश को बिजली की समस्यायों से निजात दिलवाने के सरकारी वायदे कहाँ गए और विभिन्न देशों से युरेनियम खरीद बिजली पैदा करने का अस्वासन देश की जनता को देने के बाद भी गंगा से बिजली पैदा करने की बात क्यूँ की जा रही है ? कही बांध के नाम पर देश का धन लुटने की साजिश तो नहीं रची जा रही है ? क्या गंगा के बहाने देश की सभ्यता और संस्कृति के अन्त्योष्टि की तैयारी नहीं की जा रही है? सारी परियोजनाओं के बनाने के बाद भी देश की कुल आवश्यकता का १० प्रतिशत बिजली उत्पादन में भी गंगा के पानी उपयोग में नहीं लाये जा सकते तो फिर गंगा को सुखानें की तैयारी क्यूँ की जा रही है? 
                       देश की जनता इन् सवालों का जबाब चाहती है और माँ गंगा की रक्षा के लिए सरकार से ठोस कदम तुरंत उठाने की मांग करती है। देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि 80 प्रतिशत हिन्दू जो दैनिक जीवन में हर पवित्र कार्य गंगाजल के इस्तेमाल से करता है और गंगा के प्रति अपार श्रद्धा और भक्ति का दिखावा तो करता है, परन्तु गंगा को बचाने की खातिर कुछ करने के लिए न तो उसमे प्रेरणा जग रही है और न ही वह चिंतित है | देश में गंगा के नाम पर राजनितिक रोटियां सेंकने वालें भी चुपचाप परिस्थितियों पर नज़र रख अपने राजनितिक फायदे नुकसान में ही लगी है| देश किसी भी सूरत में विकाश के नामपर गंगा की बलिदानी कतई स्वीकार करने को तैयार नहीं है । परिस्थितियों से मजबूर व मौन होकर लुटती गंगा मानों अपने रक्षा की खातिर बलिदान का आह्वाहन कर रही है, उसी तरह जैसे कभी भारत माता ने सैकड़ों बलिदानी युवकों से देश को आजाद करवाने के समय किया  था| आवश्यकता है युवाओं को आगे आने की और अपनी प्यारी गंगा मैयाँ की रक्षा के लिए समय निकालने की, ताकि उसके गोद में खेलने का मौका खुद के साथ साथ भावी पीढ़ी को भी मिल पाए| सभी देशवाशियों को मिलकर गंगा को बचाने का प्रयाश करना चाहिए | यह प्रो.अग्रवाल के समर्थन में नहीं बल्कि गंगा के प्रति अपना समर्पण जताते हुए किया जाना चाहिए व सरकार पर दबाब बनाना चाहिए जिससे मानव के कल्याण में बहती गंगा का कल्याण हो सकें | आखिर बिना गंगा के भारत की कल्पना करना भी बहुत मुश्किल है ।

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