Saturday 4 May 2013

उच्च शिक्षा के प्रति अपनी जिम्मेवारी से भागती बिहार सरकार

संदर्भ- बिहार निजी विश्वविद्यालय विधेयक-2013

बदहाल उच्च शिक्षा को पटरी पर लाने हेतु बिहार सरकार ने निजी विश्वविद्यालय के लिए अपने द्वार खोल दिए है। सरकार ने निजी विश्वविद्यालयों को खोलने के पीछे राज्य में विश्वविद्यालयों की कमी का बहाना बनाया है। सरकार इस कदम को शिक्षा की खातिर होनेवाले पलायन को रोकने वाला ऐतिहासिक फैसला बताते हुए अपनी पीठ थपथपा रही है। 

इस फैसले का अंदाजा पिछले दिनों ही लग गया था, जब ताबड़तोड़ सेमिनार, बैठकों का आयोजन निजी विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि पटना में करते और सचिवालय के इर्द-गिर्द घूमते दिखाई दे रहे थे। वही सरकार के कई बड़े मंत्री भी निजीविश्वविद्यालयों को लेकर काफी रूचि दिखा रहे थे, जिसमे राज्य के शिक्षा मंत्री भी शामिल है। 

2 अप्रैल, 2013 को राज्य विधानसभा में निजी विश्वविद्यालय खोलने संबंधी विधेयक विपक्ष के विरोध के बीच ध्वनिमत से पारित हो गया। निजी विश्वविद्यालयों के लिए रास्ता साफ होते ही इस क्षेत्र के कई दिग्गजों ने बिहार में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने में रुचि दिखाई है। विधेयक से अब दूसरे राज्यों में संचालित निजी विश्वविद्यालय अपनी शाखाएं बिहार में खोल सकेंगे।

इससे पहले की निजी विश्वविद्यालय के नफे-नुकसान पर चर्चा करें, बिहार निजी विश्वविद्यालय विधेयक-2013 पर एक नजर डालना जरुरी है। विधेयक में कुछ प्रावधान किए गए है, जो अमूमन वही सब है जो किसी राज्य में निजी विश्वविद्यालय खोलते समय शामिल किए जाते है, मसलन निजी विश्वविद्यालयों के पास नगरपालिका क्षेत्र में कम से कम पांच एकड़ और उसके बाहर दस एकड़ भूमि रखनी होगी। उसके पास कम से कम दस हजार वर्गमीटर का भवन, मानकों के अनुरूप पुस्तकालय, नेटवर्किंग, उपकरण, कम्प्युटर आदि रखने होंगे। विश्वविद्यालय के अपने कुलाध्यक्ष, कुलाधिपति, कुलपति, कुलसचिव, मुख्य वित्त एवं लेखा पदाधिकारी एवं अन्य अधिकारी होंगे। विधेयक के मुताबिक निजी ट्रस्ट और सोसाइटी ही राज्य सरकार के पास विश्वविद्यालय खोलने का आवेदन दे सकते हैं। निजी विश्वविद्यालयों के लिए कुछ मानक तय किए गए है। इसके लिए पंजीकृत सोसाईटी/ट्रस्ट ही शिक्षा विभाग को आवेदन दे सकेंगे। आवेदन के साथ शिक्षक, कोर्स, शोध कार्य, आधारभूत संरचना, खर्च एवं वित्त की जानकारी देनी होंगी। आवेदन में दी गई जानकारी की भौतिक जांच राज्य सरकार की कमिटी करेगी। साथ ही यूजीसी के मानकों के अनुसार विद्यार्थियों को सुविधा भी देना होगा। जो कोर्स चलेंगे उनके लिए संबंधित अथॉरिटी से अनुमति लेनी होगी। पूर्णकालिक योग्य शिक्षकों की नियुक्ति करनी होगी। विधेयक के अनुसार निजी विश्वविद्यालयों को भी राज्य की आरक्षण नीति का पालन करना होगा। साथ ही निजी विश्वविद्यालयों में 25 प्रतिशत सीट पर फी में छूट रहेगी। पहले पांच प्रतिशत पर होनहार छात्रों से कोई फी नहीं लिया जाएगा। अगले दस प्रतिशत पर 25 प्रतिशत और उसके बाद दस प्रतिशत पर 50 प्रतिशत फी लिया जाएगा।

बिहार सरकार का मानना है कि निजी विश्वविद्यालय अधिनियम लाने का एक बहुत बड़ा मकसद राज्य के लोगों का पलायन रोकना है। गौरतलब है कि राज्य की कुल आबादी 10.5 करोड़ है जिसमे से 58 फीसदी आबादी 25 वर्ष तक की आयु वाले युवाओं की है। फिलहाल राज्य से प्रतिवर्ष हजारों छात्र करोड़ों रुपये खर्च कर दूसरे राज्यों में तकनीकी एवं अन्य शिक्षा लेते हैं। विधेयक को पेश करते हुए राज्य शिक्षा मंत्री पीके शाही ने दावा किया कि निजी विश्वविद्यालय विधेयक के जरिए अब राज्य में गुणवत्तापूर्ण प्रतिष्ठित संस्थान खुल सकेंगे और आज की जरूरतों को निजी विश्वविद्यालय पूरा करेंगे। राज्य सरकार अपने सीमित संसाधनों के बावजूद अपने विश्वविद्यालयों के अधीन कॉलेजों में पढनेवाले छात्रों पर प्रति छात्र सालाना 65 से 75 हजार रुपये खर्च करती है। पीके शाही ने कहा कि पूरी दुनिया में अब निजी विश्वविद्यालय यथार्थ हो चुका है। इस विधेयक के प्रावधानों के अनुसार यहां खुलने वाले निजी विश्वविद्यालय प्रदेश के 10 सरकारी विश्वविद्यालयों की तरह ही काम करेंगे। उनके द्वारा दिये गये प्रमाण पत्रों एवं पाठ्यक्रमों को भी वहीं मान्यता दी जायेगी।

निजी विश्वविद्यालय को जहाँ राज्य सरकार क्रांतिकारी कदम बता रही है और कह रही है कि यह विधेयक अन्य राज्यों से इस तरह अलग होगा कि इसमें राज्य के विद्यार्थियों के आर्थिक हितों का पूरा ध्यान रखा जाएगा वही शिक्षाविद, छात्र संगठन व विपक्ष ने कई सवाल खड़े किए है। इनका मानना है कि सरकार का यह कदम गरीबों के हितों के खिलाफ है क्यूंकि निजी विश्वविद्यालय मनमानी फीस वसूलेंगे। निजी विश्वविद्यालय की बाढ़ से सरकारी कॉलेजों के प्रति सरकार की नीति ढुलमुल हो जाएगी, जिससे शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर हो जाएगी। निजी विश्वविद्यालय के प्रति सरकार की बढ़ती रूचि  को शिक्षा के प्रति सरकार के घटती रूचि का परिचायक बताते हुए कुछ लोग यह आरोप लगा रहे है कि सरकार मौजूदा विश्वविद्यालयों में कोई सुधार तो ला नहीं पाई, उल्टे निजी क्षेत्र के इस दिशा में प्रवेश का रास्ता सुगम बना दिया।

जमीनी हकीकत की बात करें तो सुशासन राज में आज राज्य के सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालय की हालत इतनी खराब है कि कोई वहां पढ़ना नहीं चाहता। पटना व आसपास के इलाकों तथा राज्य के अन्य  स्थानों पर स्थित दर्जनभर  कॉलेजों को छोड़ दें तो कही पढ़ने-पढ़ाने का माहौल नहीं दीखता। तरंग (सांस्कृतिक महोत्सव) और एकलव्य (खेल महोत्सव) जैसे प्रयास, जो वीरान पड़े महाविद्यालय व विश्वविद्यालय में शैक्षणिक माहौल बनाने के लिए 2007 में शुरू की गई थी, लगभग बंद हो गई है। राज्य के विश्वविद्यालय परिसर शिक्षा मफिआयों से भरा व गुंडागर्दी का अड्डा ज्यादा नजर आता है। कोई ठोस शैक्षणिक नीति नहीं देखने को मिलती। शैक्षणिक सुधार की क्रांतिकारी पहल करने वाले के के पाठक जैसे इमानदार अफसरों को ज्यादा दिन टिकने नहीं दिया गया। 

सरकार की इस दलील में दम जरुर है कि हर साल बिहार से हजारों छात्र शिक्षा प्राप्त करने दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। छात्रों का पलायन रुकने से जो राशि राज्य में ही रह जाएगी उससे राज्य के विकास में तेजी लाने में मदद मिलेगी। लेकिन सबके लिए शिक्षा और सबकी पहुंच में शिक्षा का दावा करने वाली लोक कल्याणकारी सरकार अगर निजी विश्वविद्यालय अधिनियम जैसा कदम उठाती है तो आशंकाओं का उठना लाजमी है।

छात्र संगठनों में भी निजी विश्वविद्यालय को लेकर कई सवाल उठ रहे है। बिहार में खुल रहे निजी विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में पिछले दिनों छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों ने  शिक्षा मंत्री पी के शाही से मिलकर अपनी आपत्तियों से अवगत कराया है जिनमे निजी विश्वविद्यालाओं को लेकर उठ रही शंकाओं को लेकर सरकार से स्पष्ट मांग की, कि सरकार यह भरोसा राज्य की जनता को दिलाए कि निजी विश्वविद्यालाओं का उदेश्य केवल पैसा कमाना नही रहेगा। संगठनों  ने अपनी मांगों में क्षेत्रीय व भोगौलिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, केंद्रीय विश्वविद्यालाओं के नियमों के तर्ज पर निजी विश्वविद्यालय विधेयक को मंजूरी देने की मांग की। परिषद ने एक तिहाई सीट निर्धन विद्यार्थियों के लिए सुरक्षित करने, निजी कॉलेजों व विश्वविद्यालाओं का शैक्षणिक स्तर नैक से मूल्यांकन करवाने, शुल्क संरचना, प्रवेश प्रक्रिया व पाठ्यक्रमों को लेकर एक राज्यस्तरीय समिति का गठन करने, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के छात्रों को आरक्षण देने, किसी प्रकार की कठिनाई होनेपर छात्रों की न्यायिक सहायता के लिए शैक्षणिक ट्रिब्यूनल बनाने, निजी विश्वविद्यालय बंद होने की स्थिति में वैकल्पिक व्यवस्था करने की भी मांग की है।

शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव अमरजीत सिन्हा निजी विश्वविद्यालय की खूबियों को बताते हुए कहते है कि राज्य में उच्च शिक्षा के संस्थानों की काफी जरूरत है। इनके अभाव में बिहार के नौजवानों को दूसरे राज्यों की तरफ रुख करना पड़ता है और उन्हें अपनी पढ़ाई पर भी काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। अब हमें सुधार की पूरी उम्मीद है। लेकिन वे इस सवाल का जबाब देने में नाकाम रहे कि राज्य सरकार अपने विश्वविद्यालयों को क्यों नहीं सुधार पाई! जब वह अपने नियंत्रण वाले संस्थानों को नहीं बदल पाई, ऐसे में वह निजी संस्थानों पर कैसे भरोसा कर सकती है कि वह शैक्षणिक परिदृश्य बदल कर रख देंगे? राज्य के विश्वविद्यालयों में इस वक्त 50 फीसदी से भी शिक्षकों के पद रिक्त हैं। राज्य के तकरीबन 78 फीसदी शिक्षक जो व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को पढ़ा रहे है वे योग्य नहीं है क्यूंकि उनका संबंध व्यावसायिक पाठ्यक्रमों से नहीं रहा है और वह बदलते समय की जरूरतों से अप-टू-डेट नहीं है। 

हालाँकि राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही इस कड़वी हकीकत को स्वीकारते हैं और कहते है कि राज्य में सरकारी विश्वविद्यालयों की हालत खराब है, जो एक कड़वी सच्चाई है। राज्य में युवाओं की आबादी के अनुरूप सरकारी विश्वविद्यालयों में पर्याप्त सीट नहीं हैं, जिसकी वजह से युवाओं को दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। साथ ही, हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, जिससे हम नए विश्वविद्यालय खोल सकें। इस वक्त राज्य सरकार विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के वेतन पर सिर्फ 3,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। बुनियादी ढांचे के लिए भी मोटे निवेश की जरूरत होगी। औसतन हर छात्र पर 65-75 हजार रुपये प्रति वर्ष की जरूरत है, जो पैसे हमारे पास नहीं हैं। ऐसे में निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना एक अच्छा विकल्प है। मंत्री के मुताबिक सबसे ज्यादा फायदा उन बच्चों को होगा, जो उच्च शिक्षा की तलाश में दूसरे राज्यों की तरफ रुख करते हैं।

लेकिन सरकार के तमाम दावों व निजी विश्वविद्यालय के पक्ष में दिए तर्कों के बीच राज्य में खुलने वाले निजी शिक्षण संस्थाओं को लेकर व्यक्त की जा रही चिंताओं को नाकारा नहीं जा सकता। सरकार लाख दावें करे, लेकिन निजी विश्वविद्यालय के प्रति उमड़ा प्रेम कई आशंकाओं को जन्म देता है जो आनेवाले दिनों में कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होने का कारण बन सकता है।

पहला, क्या सचमुच में बिहार को निजी विश्वविद्यालयों की जरुरत है? प्रथम दृष्टया उत्तर हाँ में ही मिलता है क्यूंकि राज्य में छात्रों के अनुरूप शिक्षण संस्थान नहीं है। लेकिन तत्क्षण एक सवाल उठ खड़ा होता है, क्यों? क्या सरकार मुलभुत आवश्यकताओं में शामिल शिक्षा को भी मुहैया नहीं करा सकती? यदि नहीं तो फिर ये कैसी कल्याणकारी सरकार है जो शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण क्षेत्र को निजी क्षेत्र को सौंपकर अपने दायित्व से इतिश्री कर लेना चाहती है! 

दूसरा, क्या निजी विश्वविद्यालय राज्य सरकार का अपने द्वारा चलायी जा रही शिक्षण संस्थाओं  के प्रति लगाव कम नहीं करेगा? स्वाभाविक है, निजी विश्वविद्यालय सरकार के आर्थिक सहायता के ऊपर निर्भर नहीं रहेंगे बल्कि उल्टे सरकार अपनी नीतियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखेगी। ऐसे में दोतरफा फायदें में रहनेवाली सरकार, सरकारी विश्वविद्यालाओं के प्रति उदासीनता का व्यवहार नहीं रखेंगे, इस बात की गारंटी कौन देगा! शिक्षा मंत्री के बयानों से यह साफ हो जाता है कि सरकार उच्च शिक्षा पर निवेश करने के मूड में बिल्कुल भी नहीं है। वित्त रहित शिक्षण संस्थाओं के प्रति बदले रुख भी इसकी गवाही देते है। 

तीसरा, क्या राज्य में पहले से विद्यमान निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रति अबतक की रही नीति में बदलाव आयेगा या यह यथावत रहेगा? अभीतक सरकार के नियंत्रण वाली विश्वविद्यालय निजी महाविद्यालयों को संबद्धतता देकर दूर-दराज में स्थापित कॉलेजों को प्रदर्शन के आधार पर अनुदान देने का काम करती थी। वर्तमान में ट्रस्ट के माध्यम से राज्य में चल रही कई निजीमहाविद्यालय अच्छे प्रदर्शन कर रहे है। पढ़ाई का स्तर भी कई जगहों पर अच्छा है लेकिन निजी विश्वविद्यालय जब खुलेंगे तो इन निजी महाविद्यालयों का क्या होगा?   

गौरतलब है कि 1975 तक राज्य में केवल 6 विश्वविद्यालय व 29 कॉलेज थे, जबकि तब झारखण्ड भी बिहार में शामिल था। तब इन महाविद्यालाओं व विश्वविद्यालाओं का ख्याल शिक्षा, पीडब्लूडी और वित्त विभाग मिलकर रखते थे। राज्य में ज्यादातर महाविद्यालय निजी हाथों में थे, जो जमींदारों और बड़े व्यवसायियों द्वारा समाज सेवा के रूप में चलाए जाते थे। विश्वविद्यालाओं का काम केवल परीक्षाएं लेना व शैक्षणिक सत्र की रुपरेखा तैयार करना मात्र था। 1976 में डॉ जगन्नाथ मिश्रा राज्य के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 20 निजी महाविद्यालयों को सरकारी नियंत्रण में लेकर एक नया अध्याय शुरू किया। निजीमहाविद्यालयों को सरकारी नियंत्रण में लेने का काम 1986 तक चलता रहा और तकरीबन 250 महाविद्यालय सरकारी नियंत्रण के अधीन हो गए। बाद में यह प्रक्रिया समाप्त हो गई। कारण, सरकार और अधिक निजी शिक्षण संस्थाओं को अपने अधीन लेकर आर्थिक बोझ लेना चाहती थी। उम्मीद थी कि नितीश की सरकार पुरानी परंपरा को जीवित करते हुए, राज्य के हर प्रखंड मुख्यालय पर सरकारी नियंत्रण वाली महाविद्यालय जनता को देगी और शिक्षा की गंगा प्रवाहित करेगी लेकिन निजीविश्वविद्यालय विधेयक पारित करने में दिखाई गयी जल्दबाजी से साफ हो जाता है कि वह ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रही बल्कि सस्ती लेकिन गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा मुहैया कराने के अपनी जबाबदेही से छुटकारा चाहती है।                   

चैथा,  राज्य सरकार ने 2008 में युवा नीति तैयार की थी, वही हाल ही में उसने उच्च शिक्षा का रोड मैप तैयार किया है जो दस वर्षीय (2012-2022) लक्ष्य को पूरा करने पर काम करेगी। सरकार ने इसे कृषि रोड मैप की तर्ज पर तैयार किया था और तमाम वादें किए थे कि वह राज्य की उच्च शिक्षा सुधारने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाएगी और बिहार के पुराने शैक्षणिक गौरव को दुबारा हासिल करेगी। लेकिन निजी विश्वविद्यालय सरकार के इस मंशा पर कई सवाल खड़ा करते है। क्या राज्य की शिक्षा व्यवस्था को निजी विश्वविद्यालय के हाथों सौंपने से ही नालंदा का गौरव वापस आ जाएगा? क्या सरकार की युवा नीति महजनिजी हितों को प्रोत्साहन देने वाली नीति है, कुछ चंद हाथों में राज्य की शिक्षा सौंप देने की नीति है? अगर निजी विश्वविद्यालयों से राज्य का भला होने की इतनी ही संभावना थी तो अबतक सरकार ने इसकी पहल क्यों नहीं की थी? 7 साल सरकार में रहने के बाद उच्च शिक्षा की सुध आना और इसे निजी हाथों में सौंप देने का फैसला क्या महज पैसा कमाने का एक धंधा मात्र नहीं है?

पांचवा, क्या यह फैसला राज्य सरकार व राज्यपाल के बीच टकराहट की उपज नहीं है? राज्य सरकार और राज्यपाल, जो राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते है और कुलपति, प्रति-कुलपति सहित महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति का अधिकार भी रखते है, के बीच लगातार टकराहट की खबरें आ रही थी। सरकार विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों में अपनी दखलअंदाजी चाहती थी जबकि राज्यपाल अपनी मनमानी चलाते थे। यह माना जाना है कि विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों में जमकर पैसों का लेन-देन होता है। स्वाभाविक है, सरकार भी अपना हिस्सा सुनिश्चित करना चाहती थी। निजी विश्वविद्यालयों के प्रति बदले रुख से इस बात पर मुहर लगती है। खासकर वैसे समय में, जबकि राज्य के राज्यपाल खुद निजी विश्वविद्यालयों के मालिक हो और राज्यपाल बनने के बाद लगातार सभी मंचों से निजी विश्विद्यालयों की पैरवी करते फिरते हों, वैसे में निजीविश्वविद्यालयों के प्रति सरकार के बदले नजरिये का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है।

हाल ही में सरकार ने 15 कॉलेजों को चुनकर शैक्षणिक रूप से उत्कृष्ट संस्थान बनाने की पहल की थी तो राज्य में उच्च शिक्षा के प्रति सरकार के बदलते रुख का अंदाजा लगा था, लेकिन राज्य के सरकारी महाविद्यालयों व विश्वविद्यालय में रिक्त पड़े 5000 से भी ज्यादा शिक्षकों के पदों को रैसलाईजेशन करके 3,493 करना व निजी हाथों में सौंपने से राज्य की शिक्षा व्यवस्था के व्यवसायीकरण होने संबंधी कई प्रकार की आशंकाओं का जन्म लेना महज कागजी आशंकाएं नहीं है। इस बात का अंदाजा जयपुरिया समूह के प्रमुख शरद जयपुरिया ने इस बयान से लगाया जा सकता है कि हम इस वक्त लखनऊ, नोएडा और जयपुर में संस्थान चला रहे हैं। इसमें से हर संस्थान में 800 छात्र पढ़ रहे हैं, जिसमें से कम से कम 100 छात्र बिहार से ताल्लुक रखते हैं। इसीलिए बिहार एक काफी बड़ा बाजार है। हम यहां अपने संस्थान को शुरू करने के लिए काफी उत्सुक है।

बिहार की जनता को तय करना है कि शिक्षा को उसे बाजार बनते देखना है या पढ़ने -पढ़ाने का मंदिर! निजी विश्वविद्यालय अपनी जगह ठीक है लेकिन अच्छा होता सरकार, राज्य में पहले से खुले शैक्षणिक संस्थानों की दुर्दशा को ठीक करती। मोतिहारी व गया में केंद्रीय विश्वविद्यालय खुल गए है। राज्य के कोने-कोने में पहले से ही सामाजिक संस्थाओं द्वारा स्थापित कॉलेज मौजूद है। सरकार योग्य शिक्षकों की बहाली करके, राज्य में पहले से मौजूद शिक्षण संस्थानों को उत्कृष्ट बनाने का काम करती तो शायद ज्यादा बढि़या रहता। आखिर बिहार की पहचान भी तो शिक्षा क्षेत्र में ही है, फिर सरकार शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा पर खर्च करने से क्यों परहेज कर रही है?

शिक्षा को लेकर निजी क्षेत्र के अनुभव यही बताते है कि उनके लिए यह सिर्फ पैसा कमाने का एक जरिया मात्र है। न तो उन्हें छात्रों के कैरियर की चिंता रही है और न ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की। बड़ा सवाल है, क्या ये निजी विश्वविद्यालय सचमुच में बिहार की बदहाल शिक्षा को आबाद करने आएंगे या दुसरे जगहों की तरह लुट-पाट का एक माध्यम बनकर रह जाएंगे!